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________________ १२० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ जहा विहंगमा पिंगा, थिमियं भुंजइ दगं । एवं विण्णवणित्थीस, दोसो तत्थ कओ सिया?॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - विहंगमा - पक्षिणी, पिंगा - पिंगा (कपिंजल) नामक । - भावार्थ - कामासक्त अन्यतीर्थी कहते हैं कि जैसे पिङ्ग नामक पक्षिणी बिना हिलाये जल पान करती है इसलिये किसी जीव को उसके जलपान से दुःख नहीं होता है और उसकी तृप्ति भी हो जाती है इसी तरह समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से किसी जीव को दुःख नहीं होता है और अपनी तृप्ति भी हो जाती है इसलिये इस कार्य में दोष कहाँ से हो सकता है ? एवमेगे उ पासत्था, मिच्छदिट्ठी अणारिया । अज्झोववण्णा कामेहि, पूयणा इव तरुणए ॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ - मिच्छदिट्ठी - मिथ्यादृष्टि, अणारिया - अनार्य, अझोववण्णा - अत्यंत मूर्च्छित, पूयणा - पूतना डाकिनी, तरुणए- बालकों पर । ___ भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से मैथुन सेवन को निरवद्य बताने वाले पुरुष पार्श्वस्थ हैं मिथ्यादृष्टि हैं तथा अनार्य हैं वे कामभोग में अत्यन्त आसक्त हैं जैसे पूतना डाकिनी बालकों पर आसक्त रहती है । अणागय-मपस्संता, पच्चुप्पण्ण-गवेसगा । ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउंमि जोव्वणे ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - अणागयं - भविष्य के दुःख को, अपस्संता - न देखते हुए, पच्चुप्पण्णगवेसगा - वर्तमान सुख की खोज करने वाले, परितप्पंति - पश्चात्ताप करते हैं, खीणे (झीणे)- क्षीण होने पर, आउंमि - आयु, जोव्वणे - यौवन । भावार्थ - असत् कर्म के अनुष्ठान से भविष्य में होने वाली यातनाओं को न देखते हुए जो लोग वर्तमान सुख की खोज में रत रहते हैं वे युवावस्था और आयु क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं। जेहिं काले परिक्रतं, ण पच्छा परितप्पए । ते धीरा बंधणुमुक्का, णावकंखंति जीवियं ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - जेहिं - जिन पुरुषों ने, काले - काल में परिक्कंतं - पुरुषार्थ किया है, धीरा - धीर पुरुष, बंधणुमुक्का - बंधन से छूटे हुए । भावार्थ - धर्मोपार्जन के समय में जिन पुरुषों ने धर्मोपार्जन किया है वे पश्चात्ताप नहीं करते हैं । बन्धन से छुटे हुए वे धीर पुरुष असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । विवेचन - कामभोगों में आसक्त पुरुष धन और यौवन के मद में अनेक प्रकार के पापाचरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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