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________________ अध्ययन ३ उद्देशक ४ १२१ रूप अनर्थ कर डालते हैं परन्तु यौवन अवस्था बीतने पर उनको पश्चात्ताप करना पड़ता है। जैसे कि कहा है - विहवाव लेव नडिएहिं जाइं कीरति जोव्वणमएणं । वयपरिणामे सरियाई ताई हियए खुड्छति ॥१॥ संस्कृत छायाविभवावलेपनटितैर्यानि क्रियन्ते यौयन मदेन। वयः परिणामे स्मृतानि तानि हदयं व्यथन्ते ॥१॥ अर्थ - धन के घमण्ड से और जवानी के जोर से जो जो नहीं करने योग्य कार्य किये। वे सब जवानी के बीत जाने पर जब याद आते हैं तो मन में बड़ा दुःख होता है। इसी बात को हिन्दी कवि ने भी कहा है - .. जोबन धन मद कारणे, अनर्थ किये अनन्त । हृदय कांपे स्मरण से, बुढापे खटकन्त ॥ अतएव ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि - अपनी आत्मा का हित चाहने वाले जिन पुरुषों ने धर्म उपार्जन करने के समय में धर्म उपार्जन करने में खूब पुरुषार्थ किया है वे वृद्धावस्था आने पर तथा मरण • के समय में पश्चात्ताप नहीं करते हैं। अत: आत्मार्थी पुरुषों को चाहिये कि जब तक शरीर में शक्ति है तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिये। जैसा कि शास्त्रकार फरमाते हैं - जरा जाव ण पीलेइ, वाही जाव ण वड्डइ । जाविंदिया ण हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ हिन्दी दोहा - जब लग जरा (बुढापा) न पीडती, तब लग कायनीरोग। . इन्द्रियाँ हिणी ना पडे, धर्म करो शुभ योग ॥१॥ जहा णई वेयरणी, दुत्तरा इह संमया । एवं लोगंसि णारीओ, दुत्तरा अमइमया ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - णई - नदी, वेयरणी - वैतरणी दुत्तरा (दुरुत्तरा)- दुस्तर, संमया - मानी गयी है अमइमया - अमतिमता-निर्विवेकी मनुष्य से । भावार्थ - जैसे अतिवेगवती वैतरणी नदी दुस्तर है इसी तरह निर्विवेकी पुरुष से स्त्रियाँ दुस्तर हैं। - विवेचन - जैसे नदियों में नरक गत वैतरणी नदी अति वेगवाली और विषम तटवाली होने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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