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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
90000000000000000000000000000000000000000000000000 कारण दुःख से उल्लंघन करने योग्य है। इसी तरह इस लोक में सत्पुरुषार्थ हीन विवेक रहित पुरुषों के लिये स्त्रियों को अर्थात् कामवासना को जीतना बड़ा कठिन है।
जेहिं णारीणं संजोगा, पूयणा पिट्ठओ कया । सव्वमेयं णिराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - णारीणं- स्त्रियों के, संजोगा - संयोग-संबंध-संसर्ग को, पूयणा - पूतना-काम वासना को णिराकिच्चा-तिरस्कार करके।
भावार्थ - जिन पुरुषों ने स्त्रीसंसर्ग और कामवासना को छोड़ दिया है वे समस्त उपसर्गों को जीत कर उत्तम समाधि के साथ निवास करते हैं ।
एए ओघं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो । जत्थ पाणा विसण्णासि, किच्चंति सयकम्मुणा ॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - ओघं - ओघ संसार के प्रवाह को , तरिस्संति - पार करेंगे, ववहारिणो - व्यापार करने वाले, विसण्णा- खेदित होते हुए, किच्चंति - पीडित होते हैं ।
भावार्थ - अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतकर महापुरुषों द्वारा सेवित मार्ग से चलने वाले धीर पुरुष, जिस संसार सागर में पड़े हुए जीव अपने कर्मों के प्रभाव से नाना प्रकार की पीड़ा भोगते हैं उसको इस प्रकार पार करेंगे जैसे समुद्र के दूसरे पार में जाकर व्यापार करने वाला वणिक लवण समुद्र को पार करता है । - विवेचन - जैसे जहाजों के द्वारा व्यापार करने वाले पुरुष जहाज द्वारा लवण समुद्र को पार करते हैं इसी प्रकार कामवासना को जीतने वाले साधु पुरुष भाव रूप ओघ को अर्थात् संसार सागर को संयम रूपी जहाज के द्वारा पार कर जाते हैं।
तं च भिक्खु परिण्णाय, सुव्वए समिए घरे । मुसावायं च वजिज्जा, अदिण्णादाणं च वोसिरे ॥१९॥
कठिन शब्दार्थ - परिण्णाय - जान कर, सुव्वए - सुव्रत-उत्तम व्रतों से युक्त समिए - समित-समितियों से युक्त, वग्जिज्जा- छोड़ दे वोसिरे - त्याग दे ।।
भावार्थ - पूर्वोक्त गाथाओं में जो बातें कही गई हैं उन्हें जान कर साधु उत्तम व्रत तथा समिति से युक्त होकर रहे एवं मृषावाद और अदत्तादान को त्याग दे ।
विवेचन - साधु के पांच महाव्रत कहे गये हैं उन सब में प्राणातिपात विरमण रूप अहिंसा महाव्रत सब व्रतों में प्रधान है। दूसरे महाव्रत तो प्रथम महाव्रत के बाड़ रूप हैं। इसलिये इस गाथा में पांचों महाव्रतों का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिये।
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