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________________ अध्ययन ९ २२९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 धोयणं रयणं चेव, वत्थीकम्मं विरेयणं । वमणंजण-पलीमंथं, तं विजं परिजाणिया ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - धोयणं - धोना, रयणं - रंगना, वत्थीकम्मं - वस्तिकर्म, विरेयणं - विरेचन, वमणं - क्मन, अंजण - अंजन, पलीमंथं - संयम को नष्ट करने वाले । भावार्थ - हाथ पैर धोना और उनको रंगना एवं वस्तिकर्म, विरेचन, वमन और नेत्र में अञ्जन लगाना ये सब संयम को नष्ट करने वाले हैं इसलिये विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । विवेचन - 'वस्तिकर्म' का मतलब हठ योग की एक प्रक्रिया से हैं, जिसमें गुदा द्वार से पानी पेट के अन्दर खींचकर, अंतडियों का मल साफ किया जाता है । एनिमा लेना भी वस्तिकर्म में गिना जाता है और विरेचन व वमन और अंजन भी हठयोग से सम्बन्धित किन्हीं प्रक्रियाओं की संज्ञा प्रतीत होती है । ये क्रियाएं शरीर शुद्धि के लिये की जाती है । उपर्युक्त क्रियाओं में हिंसा तो है ही, पर उनसे बहिर्मुख वृत्ति हो जाने का सबसे बड़ा भय है । अतः इन क्रियाओं के सेवन में अधर्म और संयम के लिये त्याम में धर्म है । हाथ, पैर, वस्त्र आदि को धोना और रंगना, वस्तिकर्म अर्थात् एनिमा लेना, जुलाब लेना तथा दवा लेकर वमन करना और शोभा के लिये आँख में अंजन लगाना इन सब को तथा दूसरे भी शरीर संस्कार आदि भी जो संयम के विघातक हैं उनके स्वरूप और फल को जानकर- बुद्धिमान् मुनि त्याग कर दे ।। १२॥ , गंध-मल्ल-सिणाणं च, दंत-पक्खालणं तहा । परिग्गहित्थिकम्मं च, तं विजं परिजाणिया ।।१३॥ - कठिन शब्दार्थ - गंध-गंध, मल्ल - मल्य-माला, सिणाणं - स्नान, दंत पक्खालणं - दंत प्रक्षालन, परिग्गह- परिग्रह, इथि- स्त्री, कम्मं - हस्तकर्म करना । भावार्थ - गन्ध, फूलमाला, स्नान, दांतों को धोना, परिग्रह रखना, स्त्रीसेवन करना, हस्तकर्म करना, इनको पाप का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग कर दे। विवेचन - कोष्ठपुट आदि गन्ध (आजकल इत्र, सेन्ट आदि) चमेली आदि फूलों की माला, देशस्नान और सर्वस्नान तथा किसी भी प्रकार के टुथपेस्ट आदि से दान्तों को धोना, सचित्त या अचित्त वस्तुओं का संग्रह करना, विषय सेवन, हस्तकर्म आदि सावद्य अनुष्ठानों को कर्मबन्ध और संसार भ्रमण का कारण जानकर विद्वान् मुनि इन सब का सर्वथा त्याग कर दे ।। १३ ।। उद्देसियं कीयगडं, पामिच्चं चेव आहडं । पूर्य अणेसणिज्जंच, तं विजं परिजाणिया ।।१४॥ कठिन शब्दार्थ - उद्देसियं - औद्देशिक, कीयगडं - क्रीतकृत-खरीदा हुआ, पामिच्चं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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