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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ .
"सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्याओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं।"
अर्थ - भरत क्षेत्र और एरवत क्षेत्र के प्रथम और अन्तिम (पहला और चौबीसवाँ) तीर्थंकर को छोड़कर बीच के बाईस तीर्थङ्करों के समय में और महाविदेह क्षेत्र के सब तीर्थङ्करों के समय में चार याम धर्म होता है । यथा --
सर्वथा १. प्राणातिपात विरमण (निवृत्ति) २. सर्वथा मृषावाद विरमण ३. सर्वथा अदत्तादान विरमण ४. सर्वथा बहिद्धादान विरमण।
यहां पर बहिद्धादान शब्द से सर्वथा मैथुन विरमण और सर्वथा परिग्रह विरमण का ग्रहण किया गया है।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये सब प्राणियों को पीड़ा देने के कारण शस्त्र के समान हैं तथा आठ प्रकार के कर्मबन्ध के कारण हैं । अतः विद्वान् पुरुष इन बातों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर दे।
पलिउंचणं च भयणंच, थंडिल्लुस्सयणाणि य । . .. धूणादाणाइं लोगंसि, तं विजं परिजाणिया ॥११॥
कठिन शब्दार्थ - पलिउंचणं - माया, भयणं - लोभ, थंडिल्लुस्सयणाणि - क्रोध और मान को, धूण - त्याग करो। .
भावार्थ - माया, लोभ, क्रोध और मान, संसार में कर्मबन्ध के कारण हैं इसलिये विद्वान् मुनि इनका त्याग करे ।
विवेचन - जिस जीव में कषाय विदयमान है उसका पञ्च महाव्रत धारण करना निष्फल है। इसलिये पञ्च महाव्रत को सफल करने के लिये, कषाय का त्याग करना चाहिए । यह बात इस गाथा : में बताई गयी है । जिससे मनुष्य की क्रिया में टेढापन आ जाता है उसे पलिकुञ्चन कहते हैं । माया का नाम पलिकुञ्चन है। जिससे आत्मा सर्वत्र झुक जाता है उसे भजन कहते हैं । यहां लोभ को भजन कहा है । जिसके उदय से आत्मा सत् और असत् के विवेक से रहित होकर स्थण्डिल के समान हो जाता है। उसे स्थण्डिल कहते हैं । यहां क्रोध को स्थण्डिल कहा है । जिसके उदय से जीव उत्तान (अभिमानी) हो जाता है, उसे उच्छाय कहते हैं । यहां मान को उच्छाय कहा है । इन उपरोक्त चारों कषायों के स्वरूप को जानकर बुद्धिमान् पुरुष इनका सर्वथा त्याग कर दें । क्योंकि यह कषाय ही कर्म बन्धन का कारण है और यही संसार में परिभ्रमण कराने वाली हैं ।। ११ ।।
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