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. श्री सयगडांग सत्र श्रतस्कन्ध १ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रामीत्य-उधार लिया हुआ, आहडं - आहत-लाया हुआ, पूर्व - पूति-आधाकर्मी से मिश्रित, अणेसणिजं - अनेषणीय ।
भावार्थ - साधु को दान देने के लिये जो आहार वगैरह तैयार किया गया है तथा जो मोल लिया गया है एवं गृहस्थ ने साधु को देने के लिये जो आहार आदि लाया गया है तथा जो आधाकर्मी आहार से मिश्रित है इस प्रकार जो आहार आदि किसी भी कारण से दोषयुक्त है उसको संसार का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग कर दे ।
विवेचन - किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार आदि यदि वही साधु ले तो आधाकर्म दोष लगता है और यदि दूसरा साधु ले तो औद्देशिक दोष लगता है । साधु के लिये खरीद कर लायी गयी वस्तु यदि साधु को दे तो साधु को क्रीतकृत दोष लगता है । किसी दूसरे से उधार लेकर मुनि को दिया गया आहारादि पामित्य दोष युक्त कहलाता है । गृहस्थ अपने घर से कोई भी वस्तु लाकर दे तो मुनि को आहड (आहत) दोष लगता है । साधु के लिये जो आहारादि बनाया जाता है उसको आधाकर्म दोष कहते हैं । उस आधाकर्म आहार के एक कण से युक्त होने पर शुद्ध आहारादि भी अशुद्ध हो जाता है । उस आहार को पूत (पूतिकर्म) दोष युक्त कहते हैं । कहने का आशय यह है कि, . किसी भी दोष से जो आहारादि दूषित हो गया है ऐसे अशुद्ध आहारादि को मुनि ग्रहण न करे किन्तु उसका सर्वथा त्याग कर दे ।। १४ ।।
आसूणि-मक्खिरागं च, गिद्धवधाय कम्मगं । उच्छोलणं च कवं च, तं विजं परिजाणिया।॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - आसूणिं - वीर्य वर्द्धक आहार या रसायन, अक्खिरागं - आंखों को आंजना, गिद्ध - आसक्त, उवधाय कम्मगं - उपघात कर्म जिससे जीव की घात हो, उच्छोलणं- हाथ पैर आदि धोना, कक्कं - कल्क-उबटन करना ।।
भावार्थ - रसायन आदि का सेवन करके बलवान् बनना तथा शोभा के लिये आंख में अंजन लगाना तथा शब्दादि विषयों में आसक्त होना, एवं जिससे जीवों का घात हो ऐसा कार्य करना जैसे कि हाथ पैर आदि धोना तथा शरीर में पीट्ठी लगाना इन बातों को संसार का कारण जानकर साधु त्याग कर दे।
विवेचन - घृत पीना अथवा रसायन का सेवन आदि जिस आहार विशेष के कारण मनुष्य बलवान् बनता है और शरीर फूल जाता है उसे 'आशूनी' कहते हैं । अथवा साधारण प्रकृति वाला मनुष्य अपनी प्रशंसा से फूल जाता है। इसलिये प्रशंसा को भी 'आशूनी' कहते हैं । मुनि इसका त्याग कर दे ।। १५ ।।
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