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वीर्य नामक आठवाँ अध्ययन
पहले के अध्ययनों में कुशील (दुराचारी-पतित) और सुशील (सदाचारी, उत्तम) साधुओं का कथन किया गया है । संयम-वीर्यान्तराय कर्म के उदय से कुशीलपना होता है और संयम वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से सुशीलपना होता है अतः वीर्य (शक्ति) का स्वरूप बतलाने के लिये यह वीर्य नामक आठवाँ अध्ययन कहा जाता है । वीर्य के तीन भेद कहे गये हैं - बालवीर्य, बालपण्डित वीर्य और पण्डितवीर्य । पण्डितवीर्य से जीव धर्म कार्य में पुरुषार्थ करता है । अतः मोक्षार्थी पुरुषों को मोक्ष प्राप्ति के लिये संयम में पण्डित वीर्य के द्वारा पुरुषार्थ करना चाहिए ।
जड़ और चेतन दोनों में शक्ति है । इस शक्ति गुण के द्वारा दोनों अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं और शक्ति के द्वारा ही दोनों का परिणमन होता है अर्थात् जो द्रव्य के ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय में सहायक होती है वही शक्ति है । पर जड़ और चेतन दोनों की शक्ति में भेद है-भिन्नता है । जड़ की शक्ति को साधारणतः गुण कहा जाता है और चेतन की शक्ति को वीर्य-शक्ति ।
जब चेतन के अस्तित्व में ही बल-वीर्य का प्रमुख हाथ है तब फिर चेतन-प्राणी के प्रत्येक कार्य में इसकी झलक मिलेगी ही। हाँ, यह बात दूसरी है कि अपने-अपने उपादान के आवरणअनावरण के कारण उसमें तर-तमता हो या उसकी गति के लक्ष्य विपरीत दशा में हो । पर प्रत्येक कार्य बिना शक्ति के सम्पादित नहीं हो सकते । भव-भ्रमण भी बल-वीर्य के द्वारा ही होता है और मुक्त भी बल-वीर्य के द्वारा हो सकते हैं । इसीलिए तत्त्व-विचारक कह बैठते हैं
'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' प्रस्तुत अध्ययन में बलवीर्य के दोनों रूपों का वर्णन किया गया है। दुहा वेयं सुयक्खायं, वीरियंति पवुच्चइ । किं णु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पवुच्चइ ? ।। १॥
कठिन शब्दार्थ - सुयक्खायं - स्वाख्यात-भली प्रकार प्रतिपादन किया हुआ, वीरियं - वीर्य, ति - इति, वीरस्स - वीरपुरुष की, वीरत्तं - वीरता (वीर्य) पवुच्चइ - कहा गया है, वा - अथवा, इयं - यह ।
भावार्थ - तीर्थंकर और गणधरों ने वीर्य के दो भेद कहे हैं। अब प्रश्न होता है कि वीर पुरुष की वीरता क्या है ? और वह क्यों वीर कहा जाता है ?
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