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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कम्ममेगे पवेदंति, अकम्मं वावि सुव्वया । एएहिं दोहि ठाणेहि, जेहिं दीसंति मच्चिया ॥२॥
कठिन शब्दार्थ - कम्मं - कर्म को, अकम्मं - अकर्म को, सुव्वया - सुव्रत, ठाणेहिं - स्थानों (भेदों) में, दीसंति - देखे जाते हैं, मच्चिया - मृत्यलोक के जीव ।।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं कि हे सुव्रतो ! कोई कर्म को वीर्य कहते हैं और दूसरे अकर्म को वीर्य कहते हैं इस प्रकार वीर्य के दो भेद हैं । इन्हीं दो भेदों में मर्त्यलोक के सब प्राणी देखे जाते हैं ।
विवेचन - कई व्यक्ति क्रिया में प्रवृत्तिशील होने को ही वीरत्व मानते हैं और कर्म-त्याग-निर्वृत्ति को हीनता कायरता और दिमागी गुलामी आदि शब्दों से अभिहित करते हैं । कई व्यक्ति जो कि ईश्वर को कर्त्ता मानते हैं, वे कहते हैं - 'ईश्वर ही सबका स्रष्टा है । उसने ही वर्णाश्रम आदि धर्म बनाये हैं । अतः ईश्वर के द्वारा ही जिसको जो कर्म मिले हैं. उसे ही समर्पित करके उन्हें करते रहने में ही. आत्म सिद्धि के लिये सच्चा वीरत्व है ।' कई व्यक्ति-जो कि ईश्वर के अस्तित्व और परलोकादिं को नहीं मानते हैं-उनका यही मन्तव्य है कि-'अपने मन भाये ऐसे कार्य को करना ही सच्चा वीरत्व है; जिससे कि अपना भी भला हो और दूसरे का भी भला हो और सृष्टि का प्रवाह भी न रुके ।' इस तरह कई प्रकार की रुचि वाले अनेक प्रकार से प्रवृत्ति मार्ग का ही प्रतिपादन करते हैं । जब कि अनेकांतवादी ज्ञानी पुरुष कहते हैं-'बिना वीर्य के कोई भी कार्य नहीं होता है-चाहे वह संसार-प्रवाह की गति देने वाला कार्य हो या चाहे वह संसार-प्रवाह का शोषण करने वाला-मुक्ति के लिये किये जाने वाला कर्म हो । मानव की अपनी-अपनी रुचि के अनुसार ही उस वीर्य (बल) का लक्ष्य होता है । अत: कर्मवीर्य (प्रवृत्ति वीर्य) और निष्कर्मवीर्य (निवृत्ति वीर्य) ये लक्ष्यानुसार वीर्य के दो भेद मानना योग्य है ।' इस प्रकार मनुष्यों में ये दो विभाग दिखाई देते हैं। - कोई भी कार्य करना उसको वीर्य कहते हैं । अथवा आठ प्रकार के कर्मों को ही वीर्य कहते हैं क्योंकि जो औदयिक भाव से उत्पन्न होता है उसे कर्म कहते हैं और इसी को बाल वीर्य कहते हैं । वीर्य का दूसरा भेद यह है कि अकर्मा (जिसमें कर्म नहीं) यह वीर्यान्तराय कर्म के क्षय आदि से उत्पन्न जीव का स्वाभाविक वीर्य है । इसी को पण्डित वीर्य कहते हैं । यह जो सकर्मक और अकर्मक नाम के दो वीर्य के भेद बतलाये हैं । ये ही बाल वीर्य और पण्डित वीर्य है । संसारी समस्त प्राणी इन्हीं दो भेदों के अन्तर्गत होते हैं।
पमा कम्म-माहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥
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