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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
कठिन शब्दार्थ - हम्ममाणे - पीड़ित किया जाता हुआ, फलगावयट्ठी - छिले जाते हुए काष्ठ के फलक की तरह कृश, कंखइ - आकांक्षा करता है, अंतगस्स - अंत समय-मृत्यु की, णिधूय - क्षीण कर, पवंचुवेइ - प्रपंच (जन्म मरण-संसार) को प्राप्त नहीं करता है, अक्खक्खए - धुरा के टूट जाने से, सगडं- शकट-गाड़ी।
भावार्थ - परीषह और उपसर्गों के द्वारा पीडित किया जाता हुआ साधु दोनों तरह से छिली जाती हुई काठ की पाटिया की तरह रागद्वेष न करे किन्तु मृत्यु की प्रतीक्षा करे । इस प्रकार अपने कर्म को क्षय करके साधु संसार को प्राप्त नहीं करता, जैसे धुरा टूट जाने से गाड़ी नहीं चलती है ।
विवेचन - जैसे लकड़ी का पाटिया दोनों तरफ से छिला जाता हुआ पतला हो जाता है और वह रागद्वेष नहीं करता इसी प्रकार साधु भी अनशन आदि बाह्य तप और प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप के द्वारा शरीर को खूब तपाने से दुर्बल शरीर होकर भी रागद्वेष न करे । जिस प्रकार अक्ष (धुरा) के टूट जाने पर गाड़ी नहीं चलती है इसी प्रकार साधु भी आठ प्रकार के कर्मों का क्षय हो जाने से जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक आदि प्रपञ्च रूप संसार में परिभ्रमण नहीं करता है । इसलिये आठ प्रकार के कर्मों का क्षय करने के लिये मुनि को निरन्तर प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए।
त्तिबेमि इति ब्रवीमि । श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ । किन्तु अपनी मनीषिका (बुद्धि) से नहीं कहता हूँ।
। ॥ कुशील परिभाषा नामक सातवाँ अध्ययन समाप्त॥
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