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अय्यपन५ उद्दशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००००००००० - जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाइं कम्माइं करेंति रुद्दा।
ते घोर रूवे तमिसंधयारे, तिव्वाभितावे णरए पडंति ॥३॥
कठिन शब्दार्थ - जीवियट्ठी - जीवितार्थी-जीवन के लिए, रुद्दा - रौद्र, घोर रूवे - घोर रूप वाले, तमिसंधयारे - महान् अंधकार से युक्त, तिव्वाभितावे - तीव्र ताप वाले, णरए - नरक में, पडंति -
गिरते हैं ।
भावार्थ - प्राणियों को भय देने वाले जो अज्ञानी जीव अपने जीवन की रक्षा के लिये दूसरे प्राणियों की हिंसा आदि पाप कर्म करते हैं वे तीव्र ताप तथा घोर अन्धकार युक्त महादुःखद नरक में गिरते हैं।
तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसइ आय-सुहं पडुच्चा ।
जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खइ सेयवियस्स किंचि ॥ ४ ॥ . कठिन शब्दार्थ- आयसुहं - अपने सुख के, पडुच्चा - निमित्त, लूसए - लूषक-प्राणियों का मर्दन अंगच्छेद करने वाला, अदत्तहारी - बिना दिये दूसरे की वस्तु लेने वाला, सिक्खइ - अभ्यास करता है, सेयवियस्स - सेवनीय - सेवन करने योग्य ।
: भावार्थ - जो जीव अपने सुख के निमित्त त्रस और स्थावर प्राणियों का तीव्रता के साथ हनन करता है तथा प्राणियों का उपमर्दन और दूसरे की चीज को बिना दिये ग्रहण करता है एवं जो सेवन करने योग्य संयम का थोडा भी सेवन नहीं करता है ।
पागब्भि पाणे बहूणं तिवाइ, अणिव्वुडे घातमुवेइ बाले । णिहो णिसं.गच्छति अंतकाले, अहोसिरं कटु उवेइ दुग्गं ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - पागभि- धृष्ट-ढीठ मनुष्य, तिवाइ - अतिपाति-घात करता है, अणिव्वुडे - अनिवृत्त, घातं - घात को उवेइ-प्राप्त होता है, णिहो - नीचे णिसं - अंधकार में, अंतकालेमरणकाल में, अहोसिरं - नीचे शिर, कट्ट- करके, दुग्गं- दुर्गम-महापीड़ाकारी स्थान को ।
भावार्थ - जो जीव प्राणियों की हिंसा करने में बड़ा ढीठ है और अति धृष्टता के साथ बहुत प्राणियों की हिंसा करता है जो सदा क्रोधाग्नि से जलता रहता है वह अज्ञ जीव नरक को प्राप्त होता है । वह मरण काल में नीचे अन्धकार में प्रवेश करता है और नीचे शिर करके महापीड़ा स्थान को प्राप्त करता है।
विवेचन - पाप कार्य करके उसको धर्म बताना धृष्टता (धीटाई) है। जैसा कि उनका कथन है - "वेदविहिता हिंसा हिंसैव न भवति" अर्थात् वेद में कही हुई और विधान की हुई हिंसा को हिंसा नहीं कहना चाहिये तथा
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