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________________ ....................................... इस गाथा में "पुरिसादाणिया" शब्द दिया है जिसका शब्दार्थ है - पुरुषों के द्वारा आदानीय अर्थात् ग्रहण करने योग्य । सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र को पुरुषादानीय कहते हैं अथवा मोक्ष को पुरुषादानीय कहते हैं। क्योंकि आत्मार्थी पुरुष ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को अङ्गीकार करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं । अध्ययन ९ वैसे तो आगमों में जहाँ जहां भगवान् पार्श्वनाथ का वर्णन आया है वहाँ सब जगह भगवान् पार्श्वनाथ के लिये 'पुरुषादानीय' विशेषण आया है तथा पुरुषादानीय भगवान् पाश्वर्वनाथ की परम्परा के गांगेय आदि अनगारों को उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भी भगवान् पार्श्वनाथ के लिये यह विशेषण लगाया है कि पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने जैसी प्ररूपणा की है, वैसी ही प्ररूपणा मैं भी करता हूँ। उपरोक्त गुण वाले महापुरुष ही आठ प्रकार कर्मों को विशेष रूप से नाश करने वाले वीर हैं एवं पुत्र कलत्र आदि के स्नेह रूप बाह्य और आभ्यन्तर बन्धन से वे ही मुक्त हैं। वे पुरुष असंयम जीवन की अथवा प्राण धारण रूप जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । अगिद्धे सह फासेसुं, आरंभेसु अणिस्सिए । सव्वं तं समयातीतं, जमेतं लवियं बहु ।। ३५ ॥ कठिन शब्दार्थ - अगिद्धे अगृद्ध-अनासक्त, सद्दफासेसु- शब्द और स्पर्श में, अणिस्सिए - अनिश्रित-अप्रतिबद्ध, लवियं - कहा गया है । भावार्थ - साधु मनोहर शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न रहें तथा वह सावद्य अनुष्ठान न करे । इस अध्ययन के आदि से लेकर जो बातें (निषेध रूप से) बताई गई हैं वे जिनागम से विरुद्ध होने के कारण निषेध की गई है परन्तु जो अविरुद्ध हैं उनका निषेध नहीं है । विवेचन - शब्द आदि पांच विषयों में जो मनोहर हैं उनमें साधु राग भाव न करे और अमनोहर में द्वेष न करे। जिनागमों से विरुद्ध बातों का आचरण न करे किन्तु आगम विहित अनुष्ठानों में प्रबल पुरुषार्थ करे । - Jain Education International २४१ 0000 अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए । गारवाणि य सव्वाणि, णिव्वाणं संधए मुणि ।। ।। त्ति बेमि ।। ३६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अइमाणं अतिमान, गारवाणि - गौरवों को, णिव्वाणं- निर्वाण-मोक्ष की, संध - प्रार्थना करे । भावार्थ - विद्वान् मुनि अतिमान, माया और सब प्रकार के विषय भोगों को त्याग कर मोक्ष की प्रार्थना करे । - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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