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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ *********00 विवेचन - आत्मार्थी मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषाय के यथार्थ स्वरूप को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर दे । गारव अथवा गौरव के तीन भेद हैं - ऋद्धि गौरव, रस गौरव, साता गौरव । इन गौरवों को संसार का कारण जानकर मुनि छोड़ देवे और समस्त कर्मों का क्षय रूप मोक्ष में अपने चित्त का अनुसंधान करे। जैसे जिस पानी के नीचे अग्नि जलती रहती है, वह पानी उछाल खाते रहता है, उबलता रहता है । परन्तु अग्नि जब बुझ जाती है तब पानी अपने स्वाभाविक गुण में आकर सर्वथा शीतल बन जाता है । इसी प्रकार आठ प्रकार की कर्म रूपी अग्नि अथवा कषाय रूपी अग्नि जलती रहती है तब तक जीव संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःखी होता है। परन्तु जब आठकर्म और कंषाय रूपी अग्नि का सर्वथा क्षय हो जाता है तब जीव अपने स्वाभाविक गुण में स्थित हो जाता है। सर्वथा शीतल बन जाता है यही निर्वाण शब्द का अर्थ हैं। "निर्वाति सर्वथा शीतली भवति इति निर्वाणम्" २४२ तिमि इति ब्रवीमि । श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ । इस अध्ययन में धर्म का स्वरूप बताने के लिए निषेधात्मक शैली ग्रहण की है अर्थात् 'धर्म क्या है ?' इस प्रश्न के उत्तर में 'अमुक कर्त्तव्य नहीं करना चाहिए' यह कहा है और अन्त में एक वाक्य में धर्म की विधि- प्रवृत्ति के विषय में कह दिया है । वह वाक्य है "निर्वाण का अनुसंधान करे ।" यदि इसे धर्म का विधानात्मक वाक्य न कहकर, धर्म की परिभाषा के लिए 'ध्रुव वाक्य' कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है । क्योंकि जैन धर्म के सारे विधि-निषेध इस वाक्य के आशय पर ही आधारित हैं'आत्म- मुक्ति का विरोधी एक भी कर्तव्य मत करो-' यही जैन धर्म का सार है । इसलिए धर्म स्वरूप के प्रतिपादन में निषेधात्मक शैली ही अधिक सफल हो सकती है और एक कारण यह भी है कि निषेधात्मक शैली से त्याग-भावना पर अधिक जोर देना । क्योंकि साधक को, विवेकशील त्याग के द्वारा धर्म का, खुद को ही साक्षात् करना होता है ।. कुछ शब्दों में अध्ययन की सार रूप धर्म की निम्न परिभाषा बनाई जा सकती है-' वीतराग व्यक्तियों द्वारा कथित श्रुत को समझ कर, पूर्ण विश्वास के साथ, स-यत्न आत्मा के अनुकूल आचरण करना ही धर्म है ।' ॥ धर्म नामक नववां अध्ययन समाप्त ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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