SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि नामक दसवाँ अध्ययन उत्थानिका - नववें अध्ययन में धर्म का स्वरूप बतलाया गया है। वह चित्त की समाधि होने पर ही हो सकता है। इसलिये इस अध्ययन में समाधि का वर्णन किया जाता है। समाधि के चार भेद हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। यहाँ पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप रूप भाव समाधि का वर्णन किया जाता है। आघं मइमं अणुवीइ धम्मं, अंजू समाहि तमिणं सुणेह.। अपडिण्ण भिक्खू उ समाहि-पत्ते, अणियाणभूएसु परिव्वएण्जा ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - आघं - कथन किया है, अणुवीइ - विचार कर-जान कर, अंजू - ऋजु, अपडिण्ण - अप्रतिज्ञ-तप का फल नहीं चाहता हुआ, समाहिपत्ते - समाधि प्राप्त, अणियाणभूएसु - प्राणियों की हिंसा न करता हुआ, परिव्वएज्जा - संयम का पालन करे । - भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने सरल तथा मोक्षदायक धर्म का कथन किया है। हे शिष्यो. ! तुम उस धर्म को सुनो । अपने तप का फल नहीं चाहता हुआ तथा समाधियुक्त और प्राणियों का आरम्भ न करता हुआ साधु शुद्ध संयम का पालन करे । विवेचन - गाथा में 'मइम' शब्द दिया है - जिसका अर्थ है मर्तिमान। यहाँ पर मतिमान . शब्द का अर्थ किया गया है केवलज्ञानी तीर्थङ्कर। ऐसे वीतराग तीर्थङ्कर भगवान् महावीर स्वामी ने श्रुत चारित्र रूप धर्म का कथन किया है। मूल में 'अणुवीइ' शब्द दिया है जिसका अर्थ होता है विचार कर। सर्वज्ञ भंगवन्त तो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को देखते और जानते हैं परन्तु प्रज्ञापना योग्य पदार्थों का ही कथन करते हैं तथा कैसा श्रोता है, किस सिद्धान्त को मानने वाला है और किस देव को नमस्कार करने वाला है। इत्यादि बातों को विचार कर फिर.धर्मोपदेश फरमाते हैं। श्री सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं कि हे भव्य जीवो ! भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म और समाधि को मैं कहता हूँ सो आप लोग ध्यान पूर्वक सुनो।। १ ॥ उहुं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहि पाएहि य संजमित्ता, अदिण्ण-मण्णेसु य णो गहेज्जा ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - दिसासु - दिशाओं में, संजमित्ता - संयम का पालन करे, अदिण्णं - न दी हुई, अण्णेसु- दूसरों के द्वारा, गहेजा - ग्रहण करे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy