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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
भावार्थ - ऊपर, नीचे और तिरछे तथा आठ ही दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं उनको, हाथ पैर वश करके पीड़ा न देनी चाहिये तथा दूसरे से न दी हुई चीज न लेनी चाहिये ।
सुयक्खाय-धम्मे वितिगिच्छ-तिण्णे, लाढे घरे आयतुले पयासु । ... आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं ण कुजा सुतवस्सी भिक्खू ॥३॥ ..
कठिन शब्दार्थ - सुयक्खाय धम्मे - स्वाख्यात (अच्छी तरह प्रतिपादन करने वाला) धर्म, वितिगिच्छतिण्णे - धर्म में शंका नहीं करने वाला, लाढे - प्रधान-प्रासुक आहार से जीवन निर्वाह करने वाले आयतुले - आत्म तुल्य, पयासु - प्रजा-जीवों को, जीवियट्ठी-जीवन का अर्थी, चय-संचय, सुतवस्सी- उत्तम तपस्वी।
भावार्थ - श्रुत और चारित्र धर्म को सुन्दर रीति से कहने वाला तथा तीर्थंकरोक्त धर्म में शङ्कारहित, प्रासुक आहार से शरीर का निर्वाह करने वाला उत्तम तपस्वी साधु समस्त प्राणियों को अपने समान समझता हुआ संयम का पालन करे और इस लोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से आस्रवों का सेवन न करे एवं भविष्य काल के लिये धनधान्य आदि का सञ्चय न करे । __ : विवेचन - आत्म-शांति के चार साधन उपर्युक्त गाथा में बताये हैं; ये चार साधन ही मुख्य हैं१. ज्ञानाध्ययन, २. विश्वास या विनय, ३. आत्म-तुल्य व्यवहार और ४. तपश्चरण व आजीविका की निश्चिन्तता यानी अकिञ्चन वृत्ति । साधक इन चारों साधनों को साथ में लेकर ही, लक्ष्य वेधं में सफल हो सकता है। ..
गाथा में दिये हुये 'सुयक्खाय धम्मे' (स्वाख्यात धर्म) शब्द से ज्ञान समाधि का कथन किया गया है। 'वितिगिच्छ-तिण्णे' (विचिकित्सा तीर्णः) चित्त की अस्थिरता अथवा अपने व्रत के कारण साधु-साध्वी के मलिन शरीर और वस्त्र को देख कर घृणा करना, ये दोनों बातें जिसके चित्त से निकल गई है उसको विचिकित्सातीर्ण कहते हैं। इस शब्द से शास्त्रकार ने दर्शन समाधि का कथन किया है। 'आयतुले पयासु' (आत्मवत् सर्व प्रजासु) इस शब्द से चारित्रं समाधि रूप भाव समाधि का कथन किया गया है और यही भाव साधुता है। जैसा कि कहा है -
जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं। ण हणइ ण हणावेइ य, सममणइ तेण सो समणो ॥१॥ : छाया - यथा मम न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वा एवमेव सर्वसत्त्वानां। नहन्ति न घातयति च समणणति तेन स श्रमणः ॥१॥ अर्थ - जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है उसी प्रकार सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा
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