SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन १० २४५ जानकर जो किसी जीव की हिंसा करता नहीं, करवाता नहीं और करते हुए की अनुमोदना भी नहीं करता। इस प्रकार समभाव युक्त चित्त वाला होने से श्रमण कहलाता है। - जो असंयम जीवन की इच्छा नहीं करता तथा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का संचय नहीं करता तथा उत्कृष्ट तप से कर्मों की निर्जरा करता है वही सच्चा भाव भिक्षु है ॥ ३ ॥ सव्विंदिया-भिणिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सव्वउ विप्पमुक्के । पासाहि पाणे य पुढो वि सत्ते, दुक्खेण अट्टे परितप्पमाणे ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ - सव्विंदिय - सभी इन्द्रियाँ, अभिणिब्युडे- अभिनिर्वृत-संयत, विप्पमुक्के - विप्र मुक्त, पुढो - पृथक् पृथक्, अट्टे- आर्त, परितप्पमाणे- तप्त होते हुए। भावार्थ - साधु स्त्रियों के विषय में अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर जितेन्द्रिय बने तथा सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे । इस लोक में अलग अलग प्राणिवर्ग दुःख भोग रहे हैं, यह देखो। - विवेचन - यहाँ 'पयासु' शब्द से 'स्त्री' शब्द का ग्रहण हुआ है। उसमें पांचों विषयों की विषयवासना रही हुई है। इसीलिए मुनि संवृतेन्द्रिय अर्थात् जितेन्द्रिय होकर शुद्ध संयम का पालन करे। गाथा में 'पाणे' और 'सत्ते' दो शब्द दिये हैं यद्यपि सूक्ष्म दृष्टि से सभी जीवों के लिए चार शब्दों का प्रयोग किया गया है यथा - प्राणाः द्वि, त्रि, चतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वाः उदीरिताः ॥ अर्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, जीवों को प्राण कहते हैं। पञ्चेन्द्रिय को जीव कहते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय को सत्त्व कहते हैं । तरु अर्थात् वनस्पति को भूत कहते हैं। यह विशेष व्याख्या है। सामान्य व्याख्या में तो प्राण, भूत, जीव, सत्त्वइन चारों शब्दो में से किसी एक का प्रयोग होने पर सभी जीवों का अर्थात् एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक ग्रहण कर लेना चाहिए। . इन सब जीवों के विषय में आत्म तुल्य समझ कर मुनि संयम का पालन करे ॥४॥ एएसु बाले य पकुव्वमाणे, आवट्टइ कम्मसु पावएसु । अइवायओ कीरइ पावकम्म, णिउंजमाणे उ करेइ कम्मं ॥ ५ ॥ कठिन शब्दार्थ- पकुव्वमाणे - कष्ट देता हुआ, आवट्टइ - भ्रमण करता है, अइवायओजीव हिंसा से, णिउंजमाणे- दूसरों को हिंसा में नियुक्त करता हुआ। भावार्थ - अज्ञानी जीव पृथिवीकाय आदि प्राणियों को कष्ट देता हुआ पापकर्म करता है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy