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श्री सूयगडांग.सूत्र श्रुतस्कन्ध १
नैरयिक जीव, अपने पाप को विस्मृत और संज्ञाहीन होकर जलते हैं । नरकभूमि करुणाप्राय और ताप का स्थान है वह अत्यन्त दुःख देने वाली और पापकर्म से प्राप्त होती है।
चत्तारि अगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽभितति बालं । ते तत्थ चिटुंताभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता ॥ १३ ॥
कठिन शब्दार्थ - अगणीओ - अग्नि, समारभित्ता - जला कर, कूरकम्मा - क्रूर कर्म करने वाले, अभितविंति - तपाते हैं, अभितप्पमाणा - ताप पाते हुए, मच्छा व - मछली की तरह, जीवंत - जीती हुई, उवजोइ - अग्नि के पास, पत्ता - प्राप्त हुए ।
भावार्थ - उन नरकों में परमाधार्मिक, चारों दिशाओं में चार अग्निओं को जलाकर अज्ञानी जीवों को तपाते हैं । जैसे जीती हुई मच्छली आग में डाली जाकर वहीं तपती हुई स्थित रहती है इसी तरह वे बिचारे नैरयिक आग में जलते हुए वहीं स्थित रहते हैं ।
संतच्छणं णाम महाहितावं, ते णारया जत्थ असाहुकम्मा । हत्येहिं पाएहिं य बंधिऊणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ॥ १४ ॥
कठिन शब्दार्थ - संतच्छणं - संतक्षण, महाहितावं - महान् ताप देने वाला, असाहुकम्मा - बुरा कर्म करने वाले, बंधिऊणं - बांध कर, तच्छंति - काटते हैं, कुहाडहत्था - हाथ में कुठार लिये हुए।
भावार्थ - संतक्षण नामक एक नरक है । वह प्राणियों को महान् ताप देने वाला है । उस नरक में क्रूर कर्म करने वाले परमाधार्मिक अपने हाथ में कुठार (कुल्हाड़ा) लिये रहते हैं। वे नैरयिक जीवों को हाथ पैर बांधकर काठ की तरह कुठार के द्वारा काटते हैं ।
रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सिअंगे, भिण्णुत्तमगे परिवत्तयंता । * पति ण णेरइए फुरते, सजीव-मच्छे व अयो-कवल्ले ॥ १५ ॥
कठिन शब्दार्थ - बच्चसमुस्सिअंगे - मल के द्वारा जिनके अंग सूजे हुए हैं, भिण्णुत्तमंगे - जिनका शिर चूर्ण कर दिया गया है, परिवत्तयंता - उलट पुलट करते हुए, फुरते - छटपटाते (तड़पते) हुए, सजीव-मच्छेव - जीवित मछली की तरह, अयोकवल्ले - लोहे की कडाह में । ___भावार्थ - नरकपाल, नैरयिक जीवों का रक्त निकाल कर उसे गर्म कडाह में डालकर उस रक्त में जीते हुए मच्छली की तरह दुःख से छटपटाते हुए नैरयिक जीवों को पकाते हैं । उन नैरयिक जीवों का शिर पहले नरकपालों के द्वारा चूर चूर कर दिया गया है तथा उनका शरीर मल के द्वारा सूजा हुआ है ।
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