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________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ १४९ णो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जइ तिव्वभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥ १६ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - मसीभवंति - भस्म हो जाते हैं, तिव्वाभिवेयणाए - तीव्र पीड़ा से, मिजइ - मरते हैं, दुक्कडेण- दुष्कृत-पाप कर्म के कारण, दुक्खंति - दुःख पाते हैं । . भावार्थ - नैरयिक जीव नरक की आग में जल कर भस्म नहीं होते हैं और नरक की तीव्र पीडा से मरते भी नहीं हैं किन्तु इस लोक में अपने किये हुए पाप के कारण नरक की पीडा भोगते हुए वहां दुःख पाते रहते हैं । • तहिं च ते लोलण-संपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति । ण तत्थ सायं लहइऽभिदुग्गे, अरहियाभितावा तहवी तविति ॥ १७ ॥ . कठिन शब्दार्थ - लोलण संपगाढे - लोलन संप्रगाढ-नारकी जीवों से व्याप्त, सुतत्तं - तपी हुई, लहइ - पाते हैं, अभिदुग्गे - दुर्गम, अरहियाभितावा - निरन्तर ताप से युक्त । भावार्थ - शीत से पीड़ित नैरयिक जीव अपनी शीत मिटाने के लिये नरक में जलती हुई आग के पास जाते हैं परन्तु वे बिचारे वहां सुख नहीं पाते किन्तु उस भयङ्कर अग्नि में जलने लगते हैं । उन जलते हुए नैरयिक जीवों को परमाधार्मिक और अधिक जलाते हैं । से सुच्चई णगरवहे व सद्दे, दुहो-वणीयाणि पयाणि तत्थ । उदिण्ण-कम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति ॥ १८ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - णगरवहे - नगरवध, सद्दे - शब्द, दुहोवणीयाणि - करुणामय, पयाणि-पद, उदीणकम्मा - उदीर्ण कर्म वाले, सरहं - बड़े उत्साह के साथ, दुहेति - दुःख देते हैं । . भावार्थ:- जैसे किसी नगर का नाश होते समय नगरवासी जनता का महान् शब्द होता है उसी तरह उस नरक में महान् शब्द सुनाई देता है और शब्दों में करुणमय शब्द सुनाई पड़ते हैं । मिथ्यात्व आदि कर्मों के उदय में वर्तमान परमाधार्मिक जिनका पापकर्म फल देने की अवस्था में उपस्थित है ऐसे नैरयिक जीवों को बड़े उत्साह के साथ बार बार पीडा देते हैं । . विवेचन - मिथ्यात्व, हास्य, रति आदि कर्म जिनके उदय में आये हैं ऐसे परमाधार्मिक देव नारकी जीवों को अत्यन्त असहय दुःख देते हैं उन नारकी जीवों के भी पूर्वभव में किये हुए पापाचरण का कड़वा फल देने वाला कर्म उदय में आया है । पाणेहिं णं पाव वियोजयंति, तंभे पवक्खामि जहातहेणं । दंडेहिं तत्थ सरयंति बाला, सव्वेहिं दंडेहिं पुराकएहिं ॥ १९ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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