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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
कंठिन शब्दार्थ - वियोजयंति वियोजन (अलग) कर देते हैं, पवक्खामि कहूंगा, जहातहेणं - यथातथ्य, सरयंति स्मरण कराते हैं, पुराकएहिं पूर्वकृत, दंडेहिं - दुःख विशेष ।
भावार्थ- पापी नरकपाल, नैरयिक जीवों के अङ्गों को काट कर अलग अलग कर देते हैं । इसका कारण मैं आपको बताता हूँ । वे उन प्राणियों के द्वारा पूर्वजन्म में दिये हुए दूसरे प्राणियों के दण्ड अनुसार ही दण्ड देकर उन्हें उनके पूर्वकृत कर्म याद दिलाते हैं ।
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ते हम्ममाणा णरगे पडंति, पुण्णे दुरूवस्स महाभितावे ।
ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खी, तुट्टंति कम्मोवगया किमिहिं ॥ २० ॥
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. कठिन शब्दार्थ - हम्ममाणा मारे जाते हुए, पडंति गिरते हैं, दुरूवस्समल और मूत्र से, पुणे - पूर्ण, तुति - काटे जाते हैं, कम्मोवगया - कर्म के वशीभूत होकर, किमिहिं - कीड़ों के द्वारा । भावार्थ - नरकपालों के द्वारा मारे जाते हुए वे नैरयिक जीव, उस नरक से निकल कर दूसरे ऐसे नरक में कूदकर गिरते हैं जो विष्ठा और मूत्र से पूर्ण हैं तथा वे वहां विष्ठा मूत्र का भक्षण करते हुए चिरकाल तक रहते हैं और वहां कीड़ों के द्वारा काटे जाते हैं ।
सया कसिणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं ।
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अंदूसु पक्खिप्प विहत्तु देहं वेहेण सीसं सेऽभितावति ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ - घम्मठाणं गर्म-उष्ण तापमय स्थान, गाढोवणीयं - कर्मों से प्राप्त, अतिदुक्खधम्मं - अत्यंत दुःखमय, अंदूसु- बेड़ियों में, पक्खिप्प डाल कर, विहन्तु - हत-प्रहत कर, वेण - बिंध कर, अभितावयंति - पीड़ित करते हैं ।
भावार्थ - नैरयिक जीवों के रहने का स्थान सम्पूर्ण सदा गरम रहता है । वह स्थान निकाचित आदि कर्मों के द्वारा नैरयिक जीवों ने प्राप्त किया है । उस स्थान का स्वभाव अत्यन्त दुःख देना है । उस स्थान में नैरयिक जीवों के शरीर को तोड़ मरोड़ कर तथा उसे बेडी बन्धन में डाल एवं उनके शिर में छिद्र करके नरकपाल उन्हें पीडित करते हैं ।
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छिंदंति बालस्स खुरेण णक्कं, उट्ठे वि छिंदंति दुवे वि कण्णे ।
जिब्धं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं, तिक्खाहि सूलाहि भितावयंति ॥ २२ ॥
कठिन शब्दार्थ - छिंदंति काटते हैं, खुरेण छुरे से, णक्कं नाक की, उट्ठे - होठ, कण्णे - कान, विणिक्कस्स बाहर खींच कर, विहत्थिमित्ते
वितस्तिमात्र - वित्ता भर, सूलाहि -
से ।
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भावार्थ- नरकपाल, निर्विवेकी नैरयिक जीवों की नासिका ओठ और दोनों कानं तीक्ष्ण उस्तुरे से. काट लेते हैं तथा उनकी जीभ को एक वित्ता बाहर खींच कर उसमें तीक्ष्ण शूल चूभी कर पीड़ा देते हैं ।
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