SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ भावार्थ - इस मनुष्य भव में थोड़े सुख की प्राप्ति के लिये अपने को जो वञ्चित करते हैं वे सैकडों और हजारों बार लुब्धक आदि नीच योनियों का भव प्राप्त करके नरक में निवास करते हैं। जिसने पूर्वजन्म में जैसा कर्म किया है उसके अनुसार ही उसे पीडा प्राप्त होती है। समजिणित्ता कलुसं अणज्जा, इटेहि कंतेहि य विप्पहूणा । ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति।।त्ति बेमि॥ २८॥ कठिन शब्दार्थ - समजिणित्ता - अर्जन-उपार्जन करके, कलुसं - पाप का, अणजा - अनार्य, विष्पहूणा - विप्रहिन-रहित, कसिणे - कृत्स्न-संपूर्ण, फासे - स्पर्श वाले, कम्मोवगा - कर्म के वशीभूत होकर, कुणिमे - मांस, आवसंति - निवास करते हैं । भावार्थ - अनार्य्य पुरुष पाप उपार्जन करके इष्ट और प्रिय से रहित दुर्गन्ध भरे अशुभ स्पर्शवाले मांस रुधिरादि पूर्ण नरक में कर्मवशीभूत होकर निवास करते हैं । त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - ऐसा मैं कहता हूँ । ॥इति पहला उद्देशक ॥ दूसरा उद्देशक अहावरं सासय-दुक्ख-धम्म, तं भे पवक्खामि जहातहेणं । बाला जहा दुक्कडकम्मकारी, वेयंति कम्माइं पुरे कडाइं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - सासयदुक्खधम्म - शाश्वत दुःख धर्म-स्वभाव वाले, जहातहेणं - यथार्थ रूप . से, दुक्कडकम्मकारी - दुष्कृत-पाप कर्म करने वाले, वेयंति - वेदन करते हैं, पुरे कडाई- पूर्व कृत कम्माइं- कर्मों को। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि अब मैं निरन्तर दुःख देनेवाले नरकों के विषय में आपको यथार्थ रूप से अर्थात् जैसा उनका स्वरूप है वैसा उपदेश करूंगा । पापकर्म करने वाले प्राणिगण जिस प्रकार अपने पाप का फल भोगते हैं सो बताऊंगा । हत्येहि पाएहि य बंधिणं, उदरं विकत्तंति खुरासिएहिं । गिण्हित्तु बालस्स विहत्तु देहं, वद्धं थिरं पिट्ठओ उद्दति ॥ २ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy