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अध्ययन ४ उद्देशक १
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भावार्थ - किसी स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के ज्ञाति और सुहृदों को कभी कभी चित्त में दुःख भी उत्पन्न होता है और वे समझते हैं कि जैसे दूसरे पुरुष काम में आसक्त रहते हैं इसी तरह यह साधु भी कामासक्त हैं । फिर वे क्रोधित होकर कहते हैं कि तुम इसका भरण पोषण क्यों नहीं करते क्योंकि तूं इसका मनुष्य हैं ।।
समणं पि दट्ठ दासीणं, तत्थ वि ताव एगे कुप्पंति । अदुवा भोयणेहिं णत्थेहि, इत्थी दोसं संकिणो होंति ॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - दव- देख कर, दासीणं - उदासीन-रागद्वेष रहित अतएव मध्यस्थ, कुप्पंति - क्रोधित हो जाते हैं, इत्थीदोसं - स्त्री के दोष को, संकिणो - शंका करने वाले ।
भावार्थ - रागद्वेष से वर्जित और तपस्वी भी साधु यदि एकान्त में किसी स्त्री के साथ वार्तालाप करता है तो उसे देखकर कोई क्रोधित हो जाते हैं और वे स्त्री में दोष की शंका करने लगते हैं । वे समझते हैं कि यह स्त्री साधु की प्रेमिका है इसीलिये यह नाना प्रकार का आहार बनाकर साधु को दिया करती है ।
कुव्वंति संथवं ताहिं, पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं । तम्हा समणा ण समेंति, आयहियाए सण्णि-सेज्जाओ॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - पब्भट्ठा - भ्रष्ट पुरुष, समाहिजोगेहिं - समाधि योग से, आयहियाए - अपने कल्याण के लिए, सण्णिसेज्जाओ - स्त्रियों के स्थान पर । . . भावार्थ - धर्मध्यान से भ्रष्ट पुरुष ही स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं परन्तु साधु पुरुष अपने कल्याण के लिये स्त्रियों के स्थान पर नहीं जाते हैं अर्थात् स्त्रियों का परिचय नहीं करते हैं। .
बहवे गिहाइं अवहट्टु, मिस्सी भावं पत्थुया य एगे। धुवमग्गमेव पवयंति, वाया वीरियं कुसीलाणं ॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - गिहाई- गृहों (घरों) को, अवहट्ट- छोड़ कर, मिस्सीभावं - मिश्रभाव-कुछ गृहस्थ कुछ साधु का मिश्रित आचार, पत्थुया - स्वीकार कर लेते हैं, धुवमग्गमेव - ध्रुवमार्ग को ही, वायावीरियं - वाक्वीर-वचन में वीर्य, कुसीलाणं - कुशीलों के।
भावार्थ - बहुत लोग प्रव्रज्या लेकर भी कुछ गृहस्थ और कुछ साधु के आचार को सेवन करते हैं । वे लोग अपने इस मिश्रित आचार को ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं क्योंकि कुशीलों की वाणी में ही बल होता है, कार्य में नहीं अर्थात् शिथिलाचारी बोलते तो बहुत अच्छा हैं किन्तु तदनुसार आचरण नहीं करते हैं।
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