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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
सुद्धं रवइ परिसाए, अह रहस्संमि दुक्कडं करेंति ।
जाणंति य णं तहांविऊ, माइल्ले महासढेऽयं ति ॥ १८ ॥
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कठिन शब्दार्थ - सुद्धं शुद्ध, रवइ बतलाता है, परिसाए परिषद् सभा में, रहस्संमि - एकान्त में, दुक्कडं - दुष्कृत - पाप, तहाविक ( तहाविया) - यथार्थ को जानने वाले, माइल्ले मायावी, महासढे - महा शठ ।
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भावार्थ - कुशील पुरुष सभा में अपने को शुद्ध बतलाता है परन्तु छिपकर पाप करता है । इनकी अङ्गचेष्टा आदि का ज्ञान रखने वाले लोग जान लेते हैं कि ये मायावी और महान् शठ हैं । सयं दुक्कडं च ण वयइ, आइट्ठो वि पकत्थइ बाले ।
वेयाणुवीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो ॥ १९ ॥
कठिन शब्दार्थ - आइट्ठो प्रेरित करने पर, वेयाणुवीइ - वेदानुवीचि-मैथुन की कामना, चोइज्जतो कहा जाता हुआ कहे जाने पर, गिलाइ ग्लानि को प्राप्त होता है ।
भावार्थ - द्रव्यलिङ्गी अज्ञानी पुरुष स्वयं अपना पाप अपने आचार्य से नहीं कहता है और दूसरे की प्रेरणा करने पर वह अपनी प्रशंसा करने लगता है आचार्य आदि उसे बारबार जब यह कहते हैं कि तुम मैथुन रूपी पाप कार्य का सेवन मत करो तब वह ग्लानि को प्राप्त होता है ।
ओसियावि इत्थिपोसेसु, पुरिसा इत्थिवेय-खेयण्णा ।
पण्णा समण्णिया वेगे, णारीणं वसं उवकसंति ॥ २० ॥
कठिन शब्दार्थ - इत्थिपोसेसु स्त्रियों का पोषण करने में इत्थिवेय खेयण्णा स्त्रीवेद खेदज्ञस्त्रियों के द्वारा उत्पन्न होने वाले खेदों के ज्ञाता, पण्णासमण्णिवा - प्रज्ञा समन्वित - प्रज्ञा (बुद्धि) से युक्त, णारीणं - स्त्रियों के, वसं उवकसंति वशीभूत हो जाते हैं ।
भावार्थ- स्त्री को पोषण करने के लिये पुरुष को जो व्यापार करने पड़ते हैं उनका सम्पादन करके जो पुरुष भुक्तभोगी हो चुके हैं तथा स्त्रीजाति मायाप्रधान होती है यह भी जो जानते हैं तथा पातिकी बुद्धि आदि से जो युक्त हैं ऐसे भी कोई पुरुष स्त्रियों के वश में हो जाते हैं ।
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अवि हत्थ - पाय - छेयाए, अदुवा वद्ध-मंस-उक्कंते ।
अवि तेयसाभितावणाणि, तच्छिय खारसिंघणाई च ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ - हत्थ -पाय-छेयाए हाथ पैर काटे जाते हैं, वद्ध- वर्द्ध - चमडा, मंस
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