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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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भावार्थ - जैसे विष से मिले हुए पायस (खीर) को खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है इसी तरह स्त्री के वश में होने पर मनुष्य पश्चात्ताप करता है अतः इस बात को जानकर मुक्ति गमन योग्य साधु स्त्री के साथ एक स्थान में न रहे ।
तम्हा उ वजए इत्थी, विसलितं व कंटगं णच्चा ।
ओए कुलाणि वसवत्ती, आघाए ण से वि णिग्गंथे॥११॥
कठिन शब्दार्थ - वजए - त्याग करे, विसलित्तं - विष लिप्त, कंटगं - कण्टक, ओए - अकेला, वसवत्ती- वशवर्ती-वश में रहने वाला।
भावार्थ - स्त्रियों को विषलिप्त कण्टक के समान जानकर साधु दूर से ही उनका त्याग करे । जो स्त्री के वश में होकर गृहस्थों के घर में अकेला जाकर धर्मकथा सुनाता है, वह साधु नहीं है।
जे एयं उंछं अणुगिद्धा, अण्णयरा ते हुंति कुसीलाणं । सुतवस्सिए वि से भिक्खू , णो विहरे सह णमित्थीसु॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - उंछ - निंदनीय कर्म में, अणुगिद्धा - आसक्त, कुसीलाणं - कुशीलों में से, सुतवस्सिए - उत्तम तपस्वी, विहरे - विहार करे, सह - साथ । ___भावार्थ - जो पुरुष स्त्रीसंसर्गरूपी निन्दनीय कर्म में आसक्त हैं वे कुशील हैं अतः साधु चाहे उत्तम तपस्वी हो तो भी स्त्रियों के साथ विहार न करे अर्थात् संगति न करे। '
अवि धूयराहिं सुण्हाहिं, धाईहिं अदुव दासीहि । महतीहिं वा कुमारीहि, संथवं से ण कुजा अणगारे॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - भूयराहिं - कन्या के साथ, सुहाहिं - पुत्रवधू के साथ, भाईहि - धात्री के साथ, दासीहिं - दासी के साथ, महतीहिं - बड़ी स्त्री के साथ, कुमारीहिं - कुमारी के साथ, संथवं - संस्तव-परिचय ।
भावार्थ - अपनी कन्या हो, चाहे अपनी पुत्रवधू हो, अथवा दूध पिलाने वाली धाई हो अथवा दासी हो, बड़ी स्त्री हो या छोटी कन्या हो उनके साथ साधु को परिचय नहीं करना चाहिये ।
अदु णाइणं च सुहीणं वा, अप्पियं दटुं एगया होइ। गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खण-पोसणे मणुस्सोऽसि ॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - णाइणं - ज्ञातिजनों को, सुहीणं - सुहृदों-मित्रों को, अप्पियं - अप्रिय भाव, दटुं - देखकर, रक्खणपोसणे - रक्षण-भरण पोषण ।
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