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विवेचन - कल्पनीय और अकल्पनीय, एषणीय और अनेषणीय आदि बातों को जान कर आहारादि के लिए गया हुआ साधु आहारादि में मूर्च्छित न होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करें ।
अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू, बहुजणे वा तह एगचारी । एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गइरागइ य ॥ १८ ॥
कठिन शब्दार्थ - अभिभूय अभिभूत-तिरस्कृतत करके, बहुजणे - बहुत से लोगों के साथ, एगचारी - अकेला रहने वाला, एगंतमोणेण एकांत मौन ( संयम) के साथ, वियागरेज्जा - निरूपण करे, गइरागइ - गति आगति-जाता है और आता है ।
भावार्थ साधु असंयम में प्रेम और संयम में अप्रेम न करे वह गच्छ में रहने वाले बहुत साधुओं के साथ रहता हो अथवा अकेला रहता हो, जिससे संयम में बाधा न आवे ऐसा वाक्य बोले और यह ध्यान में रखे कि प्राणी अकेला ही परलोक में जाता है और अकेला ही आता है ।
अध्ययन १३
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विवेचन - अनादि काल के अभ्यास से यदि मुनि को असंयम में रति (प्रेम) उत्पन्न हो तथा संयम में अरति उत्पन्न हो तो उसे दूर करना चाहिए। जीव अकेला ही अपने शुभ अशुभ कर्म को लेकर परलोक में जाता है और वह उसी कर्म को लेकर दूसरे भव से आता भी है, जैसा कि कहा है -
“एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम्।
जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥
अर्थात् प्राणी अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है। वह अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है तथा दूसरे भव में भी वह अकेला ही जाता है। अत: इस संसार में धर्म के सिवाय कोई दूसरी वस्तु सहायक नहीं है। अतः साधु को संयम में रत रहना चाहिए । •सयं समेच्चा अदुवाऽवि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं
जे गरहिया सणियाण-प्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीर धम्मा ।। १९ ॥
कठिन शब्दार्थ - समेच्या - जान कर, सोच्या सुन कर भासेज्ज भाषण करे, हिययं - हितकारी, पयाणं प्रजा के लिए, गरहिया गर्हित ( निंदित), सणियाणप्पओगा निदान प्रयोग सहित ।
भावार्थ - धर्म को अपने आप जानकर अथवा दूसरे से सुनकर प्रजा के हित के लिये उपदेश करे तथा जो कार्य्य निन्दित है और जो पूजा लाभ और सत्कार आदि के लिये किया जाता है उसे धीर पुरुष नहीं करते हैं ।
विवेचन - निन्दित और फल की इच्छा से युक्त प्रयोगों का आशय यह है- व्याख्यान को आजीविका का साधन बनाना, यश-आदि की कामना से व्याख्यान करना और निन्दित-प्रयोग अर्थात्
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