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________________ २९० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 बढोत्तरी करने वाला हो जाता है उसमें भी विशेषकर मान कषाय को बढ़ाने वाला हो जाता है। मान कषाय साधुपने को निःसार कर देता है। यह श्रुत मद का कथन है। पण्णामयं चेव तवोमयं च, णिण्णामए गोयमयं च भिक्ख। आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ।।१५ ॥ कठिन शब्दार्थ - पण्णामयं - प्रज्ञा मद को, तवोमयं - तप मद को, णिण्णामए - त्याग देता है, गोयमयं - गोत्र मद को, आजीवगं - आजीविका मद को, उत्तमपोग्गले - उत्तम आत्मा । भावार्थ - साधु, बुद्धिमद, तपोमद, गोत्रमद और आजीविका का मद न करे । जो ऐसा करता है वही पण्डित है तथा वही सबसे श्रेष्ठ है । विवेचन - गाथा में 'पोग्गले' शब्द दिया है जिसका यहाँ पर 'प्रधान' अर्थ किया गया है इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि वही पुरुष उत्तम से भी उत्तम और बड़े से भी बड़ा होता है, जो आठों मदों का त्याग कर देता है । मान विनय गुण को नष्ट करने वाला होता है। माणो विणय णासणो' अतः मान का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। एयाइं मयाइं विगिंच धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीर-धम्मा । ते सव्व-गोत्तावगया महेसी, उच्चं अगोतंच गई वयंति ।।१६ ॥ कठिन शब्दार्थ - विगिंच - त्याग कर, सुधीर धम्मा - श्रुत और चारित्र धर्म से युक्त, सव्व । गोत्तावगया - सभी गोत्रों से मुक्त, अगोत्तं - गोत्र रहित, वयंति - प्राप्त करते हैं। भावार्थ - धीर पुरुष पूर्वोक्त मदस्थानों को अलग करे क्योंकि ज्ञान दर्शन और चारित्र सम्पन्न पुरुष गोत्रादि का मद नहीं करते हैं अतः वे सब प्रकार के गोत्रों से रहित महर्षि होकर सबसे उत्तम मोक्षगति को प्राप्त करते हैं। विवेचन - ऊपर यह बतलाया गया है कि मुनि आगे मद का त्याग कर देवे। गोत्र मद का त्याग करने से पुरुष अगोत्र बन जाता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। क्योंकि मोक्ष में किसी प्रकार का गोत्र नहीं होता है। भिक्खू मुयच्चे तह दिट्ठधम्मे, गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा। से एसणं जाण-मणेसणं च, अण्णस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - मुयच्चे - शरीर संस्कार से रहित उत्तम लेश्या वाला, दिधम्मे - धर्म को देखा हुआ, अणुप्पविस्सा - प्रवेश करके, एसणं - एषणा को, अणाणुगिद्धे - अननुगृद्ध-गृद्धि रहित । भावार्थ - उत्तम लेश्या वाला तथा धर्म को देखता हुआ साधु भिक्षा के लिये ग्राम या नगर में प्रवेश करके एषणा और अनेषणा का विचार रख कर अन्न और पान में गृद्धि रहित होकर शुद्ध भिक्षा लेवे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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