SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ __ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और सावद्य-प्रवृत्ति का उपदेश नहीं करना चाहिए। मुनि को सदा हितकारी वचन बोलना चाहिए। केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुइंपिगच्छेज्ज असदहाणे। आउस्स कालाइयारं वधाए, लद्धाणुमाणे य परेसु अट्टे ॥२०॥. कठिन शब्दार्थ - तक्काइ - तर्क से, अबुझ - नहीं समझ कर, खुइं - क्षुद्र-क्रोध को, असदहाणे - श्रद्धा न करता हुआ, कालाइयारं - कालातिचार, वघाए - घटा सकता है, लद्धाणुमाणेअनुमान से जान कर। भावार्थ - अपनी बुद्धि से दूसरे का अभिप्राय न समझ कर धर्म का उपदेश करने से दूसरा पुरुष श्रद्धा न करता हुआ क्रोधित हो सकता है और क्रोध करके वह साधु का वध भी कर सकता है इसलिये साधु अनुमान से दूसरे का अभिप्राय समझ कर पीछे धर्म का उपदेश करे । विवेचन - परिषद् को देखकर मुनि को धर्मोपदेश करना चाहिए। जैसे कि परिषद् में बैठे हुए . राजा आदि पुरुष किस देवता को नमस्कार करने वाला और किस दर्शन को मानने वाला है तथा इसको किसी मत का आग्रह है या नहीं। यह अच्छी तरह जानकर ही धर्म का उपदेश करना चाहिए। जो मुनि इन बातों को जाने बिना, धर्मोपदेश के द्वारा दूसरों के विरोधी वचन बोलता है, वह तिरस्कार को प्राप्त होता है और यहाँ तक कि मरणान्त कष्ट को भी प्राप्त हो जाता है। अत: परिषद् को देखकर यथा अवसर धर्म का उपदेश करना चाहिए। यही स्वपर कल्याण का कारण होता है। कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे, विणइच्छ उ सव्वओ आयभावं। रूवेहिं लुप्पंति भयावहेहि, विजं गहाया तस-थावरेहिं ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - छंद - रुचि, अभिप्राय को, विगिंच - जान कर, आयभावं - आत्म भाव को, लुप्पंति - नाश को प्राप्त होते हैं, भयावहेहिं - भय उत्पन्न करने वाले, तस थावरेहिं - त्रस और स्थावरों की। भावार्थ - धीर पुरुष सुनने वाले लोगों के कर्म और अभिप्राय को जानकर धर्म का उपदेश करे और उपदेश के द्वारा उनके मिथ्यात्व को दूर करे । उन्हें समझावे कि - हे बान्धवो ! तुम स्त्री के रूप में मोहित होते हो परन्तु स्त्री का रूप भय देने वाला है, उसमें लुब्ध मनुष्य नाश को प्राप्त होता है । इस प्रकार विद्वान् पुरुष सभा के अभिप्राय को जानकर त्रस और स्थावरों की जिससे भलाई हो ऐसे धर्म का उपदेश करे । विवेचन - उपरोक्त गाथा में बताया गया है कि परिषद् को देखकर मुनि को धर्मोपदेश करना चाहिए। अर्थात् उपदेश देने में निपुण पुरुष दूसरे के अभिप्राय को जानकर विषय वासना को निवारण करने वाला त्रस और स्थावर सभी जीवों के लिए हितकारक धर्म का उपदेश करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy