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अध्ययन ७
२०३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - जो पेटु स्वादिष्ट भोजन के लिये लोभ से स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में भिक्षार्थ जाया करते हैं और वहां जाकर धर्मकथा सुनाते हैं तथा जो भोजन के लिये अपना गुण वर्णन कराते हैं वे आचार्यों के शतांश भी नहीं है, यह तीर्थंकरों ने कहा है ।
विवेचन - ऊपर की गाथा में बतलाया गया है कि, जो साधु स्वादिष्ट आहार आदि के लिये रस . लोलुपता के कारण स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में गोचरी के लिये जाता है वह साधु नहीं है । इसी बात को विशेष रूप से दिखाने के लिये शास्त्रकार फरमाते हैं कि वह साधु "उदरानुगृद्ध" है अर्थात् जो पेट भरने में आसक्त (पेटू) है । वह कुशील है स्वादिष्ट आहार आदि के निमित्त दान में श्रद्धा रखने वाले घरों में जाकर धर्मकथा कहता है वह कुशील है । उसमें साधुता नहीं है । इसी प्रकार स्वादिष्ट भोजन
और वस्त्रादि के लिये दूसरे के द्वारा अपना गुणवर्णन करवाता है अथवा अपने मुख से ही अपने गुणों का वर्णन करता है वह भी साधुता से रहित है उसमें साधुता का अंश भी नहीं है।
णिक्खम्म दीणे परभोयणंमि, मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे ।
णीवारगिद्धे व महावराहे, अदूरए एहिइ घायमेव॥ २५॥ - कठिन शब्दार्थ - णिक्खम्म - निष्क्रमण कर, दीणे - दीन, परभोयणमि - दूसरे के भोजन में, मुहमंगलीए - मुख मांगलिक-दूसरों की प्रशंसा करने वाला, णीवारगिद्धे - चावल में आसक्त, महावराहे - महावराह-विशाल काय सूअर, अदूरए - शीघ्र ही, एहिइ - प्राप्त होता है, घायमेव-नाश
को ही।
भावार्थ - जो पुरुष अपना घर तथा धन धान्य आदि छोड़ कर दूसरे के भोजन के लिये दीन होकर भाट की तरह दूसरे की प्रशंसा करता है वह चावल के दानों में आसक्त बडे सूअर की तरह पेट भरने में आसक्त है, वह शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है।
विवेचन - पांच समिति और तीन गुप्ति का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के चौबीसवें अध्ययन में हैं । पांच समिति में से तीसरी समिति का नाम एषणा समिति है । उसके बयालीस दोष बतलाये गये हैं उद्गम के १६, उत्पादना के १६ और एषणा के १० । इनमें उत्पादना दोषों के वर्णन में बताया गया है 'पुष्विंपच्छा संथव' अर्थात् भिक्षा लेने से पहले और पीछे दाता की प्रशंसा करना जैसे कि तुम्हारे पिता
और दादा ऐसे उदार दानशील थे कि, दूध और घी से साधु का पात्र भर देते थे । आप भी वैसे ही दानशील हैं । यह बात पहले मैं केवल सुनता था किन्तु आज प्रत्यक्ष देख लिया। इस प्रकार दाता की प्रशंसा कर आहारादि लेना दोष का कारण है। अतः ऐसा करना साधु चारित्र को मलिन करना है । शुद्ध यम पालन करने वाले साधु-साध्वी को इन रस लोलुपता के दोषों से बचना चाहिए ।
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