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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ है। इसका तात्पर्य यह है कि शुद्ध संयम का पालन करने वाले साधु साध्वी को सौडा साबुन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कम्मं परिण्णाय दगंसि धीरे, वियडेण जीविज्ज य आदिमोक्खं । से बीय कंदाइ अभुंजमाणे, विरए सिणाणाइसु इत्थियासु ।। २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - दगंसि जल स्नान-जल के समारंभ में, जीविज्ज - जीवन धारण करे, आदिमोक्खं संसार से मोक्ष पर्यंत, बीयकंदाइ - बीज कन्द का अभुंजमाणे भोजन नहीं करता हुआ, सिणाणाइसु - स्नान में, इत्थियासु - स्त्रियों में, विरए - विरत रहे। भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष, जलस्नान से कर्मबन्ध जानकर मुक्तिपर्य्यन्त प्रासुक जल से जीवन धारण करे, वह बीजकाय तथा कन्द आदि का भोजन न करे एवं स्नान तथा मैथुन सेवन से दूर रहे। . विवेचन - गाथा में " आदिमोक्खं" शब्द दिया है, जिसका अर्थ है - यहां संसार को आदि कहते हैं उससे मुक्त होना वह आदि मोक्ष कहलाता है । साधु पुरुष जब तक मोक्ष न हो तब तक अथवा इस शरीर का विनाश न हो तब तक प्रासुक जल और प्रासुक आहार से ही अपना जीवन निर्वाह करे । शरीर की विभूषा और सावद्य चिकित्सा आदि क्रियाएँ भी न करे । गाथा में दिये हुए "इत्थियासु " शब्द से सभी आस्रव द्वारों का ग्रहण किया गया है अतः मुनि किसी भी आस्रव द्वार का सेवन न करे । सभी आस्रव द्वारों का तीन करण तीन योग से त्याग कर दे । २०२ जे मायरं च पियरं हिच्या, गारं तहा पुत्त-पसुं धणं च । कुलाई जे धावइ साउगाई, अहाहु से सामणियस्स दूरे ।। २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अगारं - घर को, पुत्तपसुं पुत्र और पशु को, हिच्चा - छोड़कर, धावइ - दौड़ता है, साउगाई - स्वादिष्ट भोजन वाले, कुलाई कुलों की ओर, सामणियस्स - श्रामण्य साधुपने से- श्रमणभाव से, अह - अथ - इसके बाद, आहु - कहा है। भावार्थ - जो पुरुष माता, पिता, घर, पुत्र, पशु और धन आदि को छोड़ कर दीक्षा ग्रहण करके भी स्वादिष्ट भोजन के लोभ से स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में जाता है वह साधुपने से दूर है ऐसा तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा है । - Jain Education International - कुलाई जे धावइ साउगाई, आघाइ धम्मं उदराणुगिद्धे । अहां से आयरियाण सयंसे, जे लावएज्जा असणस्स हेऊ ।। २४ ॥ कठिन शब्दार्थ - आंघाइ आख्यान (कथन) करता है, उदराणुगिद्धे - उदर पोषण में आसक्त, सयंसे- शतांश, लावएज्जा प्रशंसा कराता है, असणस्स अशन के । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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