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अध्ययन ७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
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. भावार्थ - पापी प्राणी नरक आदि में दुःख भोगते हैं यह जानकर विद्वान् मुनि पाप से निवृत्त होकर अपनी आत्मा की रक्षा करे । वह त्रस और स्थावर प्राणियों के घात की क्रिया न करे ।
विवेचन - जो लोग अग्निकाय आदि जीवों का आरम्भ करके सुख प्राप्त करने की इच्छा करते हैं । उन्हें सुख प्राप्त होना तो दूर रहा अपितु नरक आदि दुर्गति में जाकर असह्य दुःखों को और तीव्र वेदनाओं को सहन करना पड़ता है । प्राणियों का घात करने वाले जीव संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक प्रकार के क्लेश भोगते रहते हैं । अतः ज्ञानी पुरुषों का कर्तव्य है कि, त्रस और स्थावर सभी प्रकार के प्राणियों की हिंसा से निवृत्त हो जाय । - जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे, वियडेण साह? य जे सिणाइं।
जे धोवई लूसयई व वत्थं, अहाहु ते णागणियस्स दूरे ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ - धम्मलद्धं - धर्म (भिक्षा) से प्राप्त, विणिहाय - छोड़ कर, वियडेण - अचित्त जल से, साहट्ट - संकुचित कर, सिणाई - स्नान करता है, धोवई - धोता है, लूसयई - छोटा बड़ा करता है, णागणियस्स - नाग्न्य (संयम) से, दूरे - दूर है । ___ भावार्थ - जो साधुनामधारी दोषरहित आहार को छोड़ कर दूसरा स्वादिष्ट भोजन खाता है तथा अचित्त जल से अचित्त स्थान में अङ्गों को संकोच करके भी स्नान करता है तथा जो शोभा के लिये अपने हाथ पैर तथा वस्त्र आदि को धोता है एवं जो श्रृङ्गार के लिये छोटे वस्त्र को बड़ा और बड़े को छोटा करता है वह नग्नत्व-निग्रंथ भाव-श्रामण्य (संयम) से दूर है ऐसा तीर्थकर और गणधरों ने कहा है । ..
विवेचन - नग्न-भाव शब्द का अर्थ है-आत्मा का दिगंबरत्व-विषय-कषाय से रहित आत्मप्रवृत्ति, शरीर के प्रति भी बेदरकारी होना । किसी भी प्रकार की पौद्गलिकता का अनाग्रह ही असलियत में नग्नत्व है । ऐसी भाव नग्नता के आ जाने पर आत्मा की मुक्ति अवश्यंभावी है । भाव नग्नता के बिना द्रव्य नग्नता की मोक्ष-मार्ग में कुछ भी कीमत नहीं है । द्रव्य-नग्नत्व तो हर प्राणी ने अनंतबार धारण किया है ।
इसी गाथा को लेकर अभिधान राजेन्द्र कोष' के 'सेयंबर' शब्द की टीका करते हुए लिखा है - - "इत्यत्र प्रासुकोदकेनापि क्षार (साबुन) आदिना वस्त्रधावने साधुनां कुशीलित्वं टीकाकारेण भणित्तमिति स्वच्छन्दं तदाचरन्तः कुशीलिनः शुद्ध जैन धर्म प्रतिकूला एवेत्यलं बहुना ।"
अर्थ - प्रासुक अर्थात् अचित्त जल (गरम जल अथवा धोवन) से भी सोडा साबुन आदि लगाकर जो मुनि वस्त्र धोता है वह कुशील है। भगवान् की आज्ञा नहीं है किन्तु वह अपनी स्वच्छन्दता पूर्वक साबुन सोडा आदि लगाते हैं। उनका चारित्र कुशील (मलिन) हो जाता है। ऐसा करना शुद्ध जैन धर्म के प्रतिकूल
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