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तक कि विष्ठा को भी भस्म कर देती है तो क्या देवता विष्ठा खाते हैं । यह तो और अनिष्ट की प्राप्ति
होती है । अतः ऐसा मानने से बहुत दोषों की उत्पत्ति होती है ।
अपरिक्ख दिट्ठ ण हु (एव) सिद्धि, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा । भूएहि जाणं पडिलेह सायं, विज्जं गहाय तस - थावरेहिं ।। १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - अपरिक्ख परीक्षा के बिना, एहिंति प्राप्त करेंगे, घायं घात-विनाश को, अबुझमाणा - बोध को प्राप्त नहीं होने वाले, विज्जं विद्या- ज्ञान को, गहाय - ग्रहण करके ।
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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भावार्थ - जो अग्निहोत्र से अथवा जलावगाहन से सिद्धिलाभ कहते हैं वे परीक्षा करके नहीं. देखते हैं । वस्तुतः इन कर्मों से सिद्धि नहीं मिलती है । अतः उक्त मन्तव्य वाले विवेक रहित हैं, वे इन कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करते हैं । अतः ज्ञान प्राप्त करके त्रस और स्थावर जीवों में सुख की इच्छा जान कर उनका घात नहीं करना चाहिये ।
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विवेचन - " जल से स्नान करने से और अग्नि में होम करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है " वे इन कार्यों को धर्म समझ कर प्राणी हिंसा करते हैं । परन्तु प्राणियों की हिंसा करने से तो प्राप का बन्ध होता है। उससे जीव की दुर्गति होती है, सद्गति नहीं । क्योंकि सभी जीव जीना चाहते हैं । सभी जीव सुख की अभिलाषा करते हैं। इसलिये जीवादि का ज्ञान पहले करना चाहिए। जैसा कि कहा है
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पढमं णाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अण्णाणी किं काही, किं वा णाही सेयपावगं ॥
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अर्थ - सब से पहला स्थान ज्ञान का है, उसके बाद दया अर्थात् क्रिया है । ज्ञानपूर्वक क्रिया करने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । अज्ञानी, जिसे साध्य और साधन का भी ज्ञान नहीं है, जीव अजीव का भी ज्ञान नहीं है, वह क्या कर सकता है ? वह अपने कल्याण - अकल्याण को भी कैसे समझ सकता है ? अर्थात् नहीं समझ सकता है । हिन्दी में भी कहा है -
प्रथम ज्ञान पीछे दया, यह जिन मत का सार ।
कठिन शब्दार्थ - थणंति करुण रुदन करते हैं, भीत होते हैं, कम्मी- पाप कर्म करने वाले, परिसंखाय आयगुत्ते - आत्मगुप्त, पंडिसंहरेज्जा - घात न करे ।
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ज्ञान सहित क्रिया करे, उतरे भव जल पार ||
थति लुप्यंति तति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू ।
तम्हा विऊ विरओ आयगुत्ते, दठ्ठे तसे या पडिसंहरेज्जा ॥ २० ॥
लुप्यंति - छेदन किये जाते हैं, तसंति - भय जान कर, विऊ - विद्वान्, विरओ विरत,
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