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________________ अध्ययन ६ 00000000000 .............. केन्द्र-स्थल में मेरु स्थित है वैसे ही भगवान् तीर्थंकर होते हुए भी भौतिक स्वार्थों से परे थे; अतः मेरु सूर्य से शुद्ध तेज के समान वे प्रशस्त लेश्या वाले थे । प्रशस्तलेश्या में अग्रसर होने पर उनमें सूर्य के समान दिव्य ज्ञान का प्रकाश हुआ, जिससे वस्तुओं के अनंत धर्म उनकी आत्मा में झलकने लगे-अतः उनकी आत्मा की श्री लक्ष्मी बढ़ गई जिस प्रकार कि अर्चिमाली (सूर्य) के संयोग से मेरु के अन्दर की विविध मणियों के रंग चमकने लगते हैं और वह मन को अपने में रमा लेता । अतः प्रभु के ध्यान से प्राणी भी अन्तर्मुख बन कर, आनंदानुभव करने लग जाते हैं । गाथा में भगवान् महावीर स्वामी के लिये 'समणे' विशेषण दिया है। इसका अर्थ है 'श्राम्यति तपस्यति इति श्रमणः' अथवा 'सम्यग्, दर्शन ज्ञान चारित्रात्मके संयमे श्रमं पुरुषार्थम् करोति इति श्रमणः' अर्थात् जो तपस्या में अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप संयम में पुरुषार्थ करे उसे श्रमण करते हैं। रोजा सिद्धार्थ का वंश ज्ञातवंश था । इसलिये भगवान् महावीर को ज्ञात पुत्र कहा है । वे जाति यश तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र (शील) में सर्वश्रेष्ठ थे। - गिरिवरे वा सिहाऽऽययाणं, रुयए व सेट्ठे वलयायताणं । तओवमे से जगभूङ्गपणे, मुणीण मज्झे तमुदाहु पणे ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - आययाणं आयत - लम्बे पर्वतों में, णिसह - निषध, रुयए वलयायताणं - वलयाकार - गोल पर्वतों में, जग भूड़पण्णे - जगत् में भूतिप्रज्ञ, मुणीण मुनियों के, मज्झे मध्य, पण्णे - प्राज्ञ बुद्धिमान् । रुचक, भावार्थ - जैसे लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत श्रेष्ठ हैं तथा वर्तुल पर्वतों में रुचक पर्वत उत्तम है इसी तरह संसार के सभी मुनियों में अद्वितीय बुद्धिमान् भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ है ऐसा ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं। विवेचन - जैसे जम्बूद्वीप में छह वर्षधर पर्वत हैं । यथा चुल्लहिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी। इनमें निषध और नील दोनों पर्वतों की लम्बाई सरीखी है। फिर भी दक्षिण दिशा के निषध पर्वत की कुछ विशेषता होने के कारण यहाँ निषध पर्वत का कथन किया गया है। आशय यह है कि जम्बूद्वीप में अथवा दूसरे द्वीपों में सभी लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत श्रेष्ठ है तथा जम्बूद्वीप से संख्या की अपेक्षा रुचक द्वीप तेरहवाँ है। उस द्वीप के मध्य में रुचक पर्वत है। वह पर्वत मानुष्योत्तर पर्वत की तरह वलयाकार (चूड़ी के आकार) गोल है। उसका विस्तार संख्यात योजन है। इन दो पर्वतों का उदाहरण दिया गया है। आशय यह है कि लम्बे पर्वतों में निषध और वलयाकार गोल पर्वतों में रुचक पर्वत सब से प्रधान है। इसी तरह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भी संसार के सब ज्ञानियों में उत्तम एवं प्रधान ज्ञानी हैं। Jain Education International १७५ 000000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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