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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १.. 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शोभा से, भूरिवण्णे - अनेक वर्ण वाले, मणोरमे - मनोरम, अच्चिमाली - सूर्य, जोयइ - प्रकाशित हो रहा है ।
भावार्थ - वह पर्वतराज, पृथिवी के मध्यभाग में स्थित है वह सूर्य के समान कान्तिवाला है, . वह अनेक वर्णवाला और मनोहर है ! वह सूर्य के समान सब दिशाओं को प्रकाशित करता है।
विवेचन - असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीच में जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप के ठीक मध्य भाग में मेरु पर्वत है। यह मेरु सौमनस, विद्युतप्रभ, गन्धमादन और माल्यवान् इन चार दंष्ट्रा पर्वतों से सुशोभित है। समभूमि भाग पर दस हजार योजन का विस्तार वाला है। वह प्रत्येक नव्वे योजन पर एक योजन का ग्यारहवां भाग कम विस्तार वाला (बाकी का योजन के दस भाग विस्तार वाला) अर्थात् ज्यों-ज्यों ऊँचा चढ़े त्यों-त्यों कम विस्तार वाला होता हुआ सिर पर एक हजार योजन विस्तार वाला यह मेरु पर्वत है उसके सिर पर चालीस योजन की ऊंची मन्दर चलिका (चोटी) है। यह सब पर्वतों में प्रधान और सर्य की तरह प्रकाश करने वाला है। ऊपर बताई हुई विशिष्ट शोभा से युक्त यह पर्वत अनेक रत्नों से. शोभित होने के कारण अनेक वर्ण वाला है। अतएव मन को प्रसन्न करने वाला तथा सूर्य की तरह अपने . तेज से दस दिशाओं को प्रकाशित करने वाला है।
सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पवुच्चइ महतो पव्वयस्स । एतोवमे समणे णायपुत्ते, जाइ-जसो-दंसणणाणसीले ॥ १४ ॥
कठिन शब्दार्थ - सुदंसणस्स - सुदर्शन का, इव - तरह जसो - यश, पवुच्चइ - कहा जाता है, महतो - महान् पव्वयस्स- पर्वत का, समणे णायपुत्ते - ज्ञातपुत्रश्रमण भगवान् महावीर स्वामी, उवमे - उपमा, जाइ - जाति, दंसणणाण सीले - दर्शन, ज्ञान, शील ।
भावार्थ - पर्वतों में मेरु पर्वत का यश पूर्वोक्त प्रकार से बताया जाता है । ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की उपमा इसी पर्वत से दी जाती है । जैसे सुमेरु अपने गुणों के द्वारा सब पर्वतों में श्रेष्ठ हैं इसी तरह भगवान् जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सबसे प्रधान है ।
विवेचन - सुमेरु के सुदर्शन, शोभन दर्शन, मंदराचल, स्वर्णाचल, नगेन्द्र, गिरिराज, हेमाद्रि आदि अनेक सुन्दर नाम हैं वैसे ही भगवान् के सन्मति, देवार्य, ज्ञातपुत्र, वैशालीय, काश्यप, महावीर, वर्द्धमान, त्रैशलेय आदि अनेक नाम हैं अथवा सुमेरु दिव्य संगीत से गुंजित होता रहता है वैसे ही भगवान् दिव्य वाणी प्रकाशित करते हैं । सुमेरु स्वर्ण के रंग-सा शोभित है, वैसे ही भगवान् की देह स्वर्ण वर्णी है और इस से कान्ति प्रसरित होती रहती थी । जैसे पर्वतों में मेरु अनुत्तर हैं, वैसे ही धर्म स्थापकों में महावीर अनुत्तर थे । जैसे पर्वत श्रेणियों के कारण मेरु दुर्गम है, वैसे ही भगवान स्याद्वाद के कारण दुर्विजेय थे । मेरु मणियों और औषधियों से दीप्त है वैसे ही भगवान् तप से तेजस्वी थे । पृथ्वी के
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