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अध्ययन ६
१७३. 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 चतुष्टय (ज्ञान, दर्शन, शक्ति, सुख) प्रकट होकर अथवा चार अतिशय (ज्ञानातिशय, अपायापगमातिशय-निर्दोषत्वातिशय, वचनातिशय और पूजातिशय) प्रकट होकर, प्राणियों को-भव्यों को आनन्दित करते थे । मेरु के चारों ओर ग्रहगण के चक्कर काटने के समान प्रभु के पास देवगण चक्कर लगाते रहते थे । भगवान् का वर्ण भी सुनहरा था । मेरु पर्वत के तीन काण्ड हैं वैसे ही भगवान् त्रिरत्न (सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र) के धारी थे और मेरु की पंडक वन रूप वैजयन्ती के समान यथाख्यात चारित्र रूप वैजयन्ती से युक्त थे । वह मेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता हुआ तथा पृथ्वी को अवगाहन करके स्थित है। वह ऊर्ध्व लोक, तिर्खा लोक और अधोलोक ऐसे तीनों लोकों का स्पर्श करने वाला है। सूर्य आदि ज्योतिषी विमान इसके चारों तरफ परिक्रमा करते हुए फिरते रहते हैं। इस पर भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन और पण्डकवन ये चार वन हैं ये देवों को भी आनन्द देने वाले हैं इसलिये मेरु पर्वत को बहुनन्दन कहा है। ये वन स्वर्ग से भी अधिक रमणीय हैं। इसलिये स्वर्ग के इन्द्र यहाँ आकर क्रीड़ा करते हैं और आनन्द का अनुभव करते हैं।
से पव्वए सहमहप्पगासे, विरायइ कंचणमट्ठवण्णे ।
अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे,, गिरिवरे से जलिए व भोमे ।। १२ ।। .. कठिन शब्दार्थ - पव्वए - पर्वत, सहमहप्पगासे - अनेक नामों से प्रसिद्ध, कंचणमट्ठवण्णे - सोने के वर्ण वाला, विरायइ (विरायए)- सुशोभित है, गिरिसु - पर्वतों में पव्वदुग्गे - पर्वत मेखलाओं से दुर्गम, गिरिवरे - पर्वत श्रेष्ठ, भोमे व जलिए - मणि और औषधियों से प्रकाशित ।
भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत जगत् में अनेक नामों से प्रसिद्ध है । उसका रङ्ग सोने के समान शुद्ध है, उससे बढ़कर जगत् में दूसरा पर्वत नहीं है, वह उपपर्वतों के द्वारा दुर्गम है, वह मणि तथा औषधियों से प्रकाशित भूमि प्रदेश की तरह प्रकाश करता है ।
विवेचन - मेरु पर्वत के सोलह नाम हैं। जिनका नाम निर्देश १० वीं गाथा के विवेचन में दिया गया है। इसका वर्ण तपे हुए सोने को घिस कर चिकना बनाया गया हो इस तरह का शुद्ध है। यह मेखला आदि से अथवा उपपर्वतों के कारण सभी पर्वतों में दुर्गम है। इसलिये इस पर्वत पर सामान्य प्राणियों का चढ़ना बड़ा कठिन है। यह पर्वत श्रेष्ठ मणियों और औषधियों से प्रकाशित होने के कारण मानो पृथ्वी का एक भाग प्रकाशित हो रहा है।
महीइ मण्झमि ठिए णगिंदे, पण्णायए सूरिय-सुद्धलेस्से।
एवं सिरीए उ स भूरिवण्णे, मणोरमे जोयइ अच्चिमाली ॥ १३ ॥ - कठिन शब्दार्थ - महीइ - पृथ्वी के, मझमि - मध्य में, ठिए - स्थित, णगिंदे - नगेन्द्र-पर्वत राज, पण्णायए - प्रतीत होता है, सूरिय सुद्धलेसे - सूर्य के समान शुद्ध लेश्या कांति वाले, सिरिए -
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