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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ऊपर जाने पर पण्डक वन है। यह सब वनों में अतिशय सम्पन्न है। क्योंकि यहां पर तीर्थंकर भगवन्तों का जन्माभिषेक किया जाता है। यहां पर चार अभिषेक शिलाएँ हैं यथा -
१. पाण्डुशिला - मेरु पर्वत की चूलिका से पूर्व में है। यह उत्तर दक्षिण लम्बी और पूर्व पश्चिम में चौड़ी है। पांच सौ योजन की लम्बी और अढ़ाई सौ योजन की चौड़ी है। अर्ध चन्द्रमा के आकार है। यहाँ पर दो सिंहासन हैं। पांच सौ धनुष के लम्बे चौड़े और अढ़ाई सौ धनुष के मोटाई वाले हैं। इन पर पश्चिम महाविदेह के दो तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है।
२. मेरु पर्वत की चूलिका से दक्षिण दिशा में पाण्डुकम्बल शिला है। इस पर एक सिंहासन है। इस पर भरत क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है।
३. मेरुपर्वत की चूलिका से पश्चिम में रक्तशिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पश्चिम महाविदेह के दो तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है।
४. मेरुपर्वत की चूलिका से उत्तर में रक्तकम्बल शिला है। इस पर एक सिंहासन है। इस पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है।
समवायाङ्ग सूत्र के सोलहवें समवाय में मेरुपर्वत के सोलह नाम दिये गये हैं यथा - १. सन्दर २. मेरु ३. मनोरम ४. सुदर्शन ५. स्वयं प्रभ ६. गिरिराज ७. रत्नोच्चय ८. प्रियदर्शन ९. लोकमध्य १०. लोकनाभि ११. अर्थ १२. सूर्यावर्त १३. सूर्यावरण १४. उत्तर-सब क्षेत्रों से मेरु पर्वत उत्तर दिशा में है। १५. दिगादि - सब दिशाओं का निश्चय कराने वाला १६. अवतंस (आभूषण रूप)।
पुढे णभे चिट्ठइ भूमिवहिए, जं सूरिया अणुपरिवट्टयंति। से हेमवण्णे बहुणंदणे य, जंसि रइं वेदयंति महिंदा ॥ ११ ॥
कठिन शब्दार्थ - पुढे - स्पर्श किया हुआ, णभे - आकाश, भूमिवहिए - पृथ्वी पर, चिट्ठइ - स्थित है, सूरिया - सूर्य, अणुपरिवट्टयंति - परिक्रमा करते हैं, हेमवण्णे - स्वर्ण वर्ण वाला, बहुणंदणं - बहुत नंदन वनों वाला, बहुतों को आनंद देने वाला, रतिं - आनंद का, वेदयंति - अनुभव करते हैं, महिंदा - महेन्द्र-महान् इन्द्र ।
भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता हुआ और पृथिवी में घुसा हुआ स्थित है । आदित्य गण उसकी परिक्रमा करते रहते हैं । वह सुनहरी रङ्गवाला और बहुत नन्दन वनों से युक्त हैं, उस पर महेन्द्र (स्वर्गों के इन्द्र) आनन्द अनुभव करते हैं । . ..
_ विवेचन - जिस प्रकार विशालकाय मेरु-पर्वत तीनों लोकों का स्पर्श कर रहा है, पर भूमि में ही स्थित है, उसी प्रकार भगवान् अपने यश रूपी शरीर से तीनों लोक में व्याप्त होकर भी अपनी आत्मा में स्थिर थे । मेरु के ऊपर के चार वन (भद्रशाल, सौमनस, नंदन और पण्डक) के समान प्रभु में अनन्त
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