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________________ 'अध्ययन ६ १७१ तीन कांडों (भागों) वाला, पंडग वेजयंते - पंडक वन रूपी पताका से युक्त, णवणवइ - निन्नानवें, सहस्से - हजार, उद्धस्सितो - ऊपर उठा हुआ, हेट्ठ - नीचे, सहस्समेगं - एक हजार योजन । . . ... भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत सौ हजार अर्थात् एक लाख योजन का है । उसके विभाग तीन हैं तथा उस पर सबसे ऊंचा स्थित पण्डक वन पताका के समान शोभा पाता है । वह निनानवें हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजन भूमि में गड़ा हुआ है । .. विवेचन - मेरु पर्वत पांच हैं। यथा - जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और अर्धपुष्करवरद्वीप में दो। इस प्रकार ये पांच मेरु पर्वत हैं । जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत एक लाख योजन का ऊँचा है। शेष चारों मेरु पर्वत ८५ हजार योजन के हैं । जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत सब से बड़ा है। इस मेरु पर्वत के तीन काण्ड हैं। अधस्तनकाण्ड, मध्यम और ऊपरी तन। अधस्तनकाण्ड चार प्रकार का है। पृथ्वी रूप (मिट्टी रूप)। दूसरा पत्थर रूप। तीसरा वज्र (हीरा) रूप तथा चौथा कङ्कर रूप। यह प्रथम काण्ड एक हजार योजन का है। यह धरती के अन्दर है। मध्यम काण्ड भी चार प्रकार का है। अङ्क रत्न, स्फटिक रत्न, जात (सुवर्ण या सोना), रूप रजत (चांदी) रूप। .. तीसरा काण्ड एक ही प्रकार का है। वह जम्बूनद अर्थात् लाल सोने रूप है। पहला काण्ड एक हजार योजन का है। दूसरा काण्ड त्रेसठ हजार योजन का है और तीसरा काण्ड छत्तीस हजार योजन का है। इस प्रकार मेरु पर्वत एक लाख योजन का है। उसके ऊपर चालीस योजन प्रमाण मेरु पर्वत की चूलिका है। जिस प्रकार मनुष्य की चोटी उसकी लम्बाई में नहीं गिनी जाती है। इसी प्रकार मेरु पर्वत की चूलिका भी उसके एक लाख योजन लम्बाई में नहीं गिनी जाती है। जिस प्रकार यहाँ क्षेत्र चूला बतलाई गयी है उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र में काल चूला बतलाई गयी है अर्थात् जो भहीना अधिक बढ़ता है वह क्षेत्र चूला की तरह कालचूला होने से गिनती में नहीं लिया जाता है। अर्थात् प्रथम मास नगण्य कर दिया जाता है। - प्रथम मास नगण्य कर देने पर संवत्सरी सदा भादवें में ही आती है अर्थात् सावण दो होने पर पहले सावण को और दो भादवा होने पर पहले भादवे को नगण्य कर देना चाहिए। फिर संवत्सरी भादवें में होने में किसी प्रकार का विवाद ही नहीं रहता है। . मेरु पर्वत के चार वन हैं। यथा - समधरती पर भद्रशाल वन है। इसमें रहे हुए वृक्षों की शाखाएँ सब सरल होती है इसलिये इसको भद्रशाल कहते हैं। इसके पांच सौ योजन ऊपर जाने पर नन्दनवन आता है। यह मनुष्यों को और देवों को भी आनन्द देने वाला होता है। इस.वन से साढे बासठ हजार योजन ऊपर जाने पर सोमनस वन है। सोमनस का अर्थ यहाँ पर देव किया गया है। यहाँ पर देवता के बैठने और क्रीड़ा करने का स्थान होने के कारण इसे सोमनस कहते हैं। इससे छत्तीस हजार योजन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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