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________________ १७० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शास्त्रकार एक देश दृष्टान्त बतलाते हैं। जैसे स्वयंभू रमण समुद्र अपार, विस्तृत, गंभीर जल वाला और अक्षोभित जल वाला है इसी तरह भगवान् की प्रज्ञा भी विस्तृत तथा स्वयंभू रमण समुद्र से भी अनन्त गुणा गम्भीर और अक्षोभ्य है। जैसे स्वयंभू रमण समुद्र का जल निर्मल है इसी तरह भगवान् का ज्ञान भी कर्म का लेश मात्र भी न होने के कारण निर्मल है। क्रोध आदि कषायों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण वें अकषायी हैं। ज्ञानावरणीय आदि कर्म बन्धन सर्वथा नष्ट हो जाने के कारण वे मुक्त थे। ____ गाथा में आये "मुक्के" शब्द के स्थान पर कहीं 'भिक्खू' शब्द दिया हुआ है। उसका अर्थ यह है कि यद्यपि भगवान् के सब अन्तराय नष्ट हो गये थे तथा वे समस्त जगत् के पूज्य भी थे तथापि वे भिक्षा वृत्ति से ही अपना जीवन निर्वाह करते थे। वे अक्षीणमहानस आदि लब्धियों का उपयोग नहीं करते थे। भगवान् देवों के अधिपति शक्रेन्द्र के समान तेजस्वी थे। से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्व-सेटे। सुरालए वासि-मुदागरे से, विरायए णेगगुणोववेए ॥ ९ ॥ कठिन शब्दार्थ- वीरिएणं - वीर्य से, पडिपुण्ण वीरिए - पूर्ण (सर्व श्रेष्ठ) वीर्य वाले, सुदंसणे - सुदर्शन (मेरु) णगसव्व- सभी पर्वतों में, सेटे - श्रेष्ठ, सुरालए - स्वर्ग, वासि - निवास करने वाले को, मुदागरे - हर्ष उत्पन्न करने वाला, विरायए - विराजमान है, णेगगुणोववेएअनेक गुणों से युक्त । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी पूर्णवीर्य और पर्वतों में सुमेरु के समान सब.प्राणियों में श्रेष्ठ हैं । वह देवताओं को हर्ष उत्पन करने वाला स्वर्ग की तरह सब गुणों से सुशोभित हैं । विवेचन - वीर्य अन्तराय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से स्वाभाविक शारीरिक बल तथा धैर्य और संहनन आदि बलों से भगवान् परिपूर्ण है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में नाभि ठीक बीचो-बीच होती है इसी प्रकार मेरु पर्वत जम्बूद्वीप के ठीक मध्य भाग में आया हुआ है। इसलिये जम्बूद्वीप को मेरु नाभि कहते हैं। वह मेरु पर्वत सब पर्वतों में श्रेष्ठ है इसी प्रकार भगवान् वीर्य तथा अन्य गुणों में श्रेष्ठ है। जैसे अपने ऊपर निवास करने वाले देवों को हर्ष उत्पन्न करने वाला प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और प्रभाव आदि गुणों से सुशोभित है इसी तरह भगवान् भी अनेक गुणों से सुशोभित हैं। अथवा जैसे स्वर्ग सुखों को देने वाला और अनेक गुणों से सुशोभित है इसी तरह वह सुमेरु भी है। सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडग-वेजयंते। से जोयणे णवणवइ सहस्से, उद्धस्सितो हेट्ठ सहस्समेगं ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - सयं सहस्साण - सौ हजार अर्थात् एक लाख जोयणाणं- योजन, तिकंडगे - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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