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________________ १७६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाइ ।। सुसुक्कसुक्कं अपगंड सुक्कं, संखिंदुएगंत-वदात-सुक्कं ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - धम्ममुईरइत्ता - धर्म का उपदेश दे कर, अणुत्तरं - सर्वोत्तम, झाणवरं - प्रधान ध्यान, झियाइ - ध्याते थे. सुसुक्कसुक्कं - अत्यंत शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल, अपगंडसुक्कं- . जल के फेन के समान शुक्ल, संखिंदुएगंतवदात सुक्कं - शंख तथा चन्द्रमा के समान एकांत शुक्ल । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी, सर्वोत्तम धर्म बताकर सर्वोत्तम ध्यान ध्याते थे । उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान दोष वर्जित शुक्ल था तथा शंख और चन्द्रमा के समान शुद्ध था । .. विवेचन - जिससे बढ़कर कोई दूसरा नहीं है उसे अनुत्तर कहते हैं। ऐसे अनुत्तर धर्म का कथन करके भगवान् अनुत्तर ध्यान ध्याते थे। भगवान् को जब केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया तब योग निरोध के . समय में सूक्ष्म काय योग को रोकते हुए शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद जो कि सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती है उसे ध्याते थे और जब वे योगों का निरोध कर चुके तब शुक्ल ध्यान का चौथा भेद व्युपरतक्रिय अनिवृत कहलाता है, उसे ध्याते थे। यही बात शास्त्रकार बतलाते हैं कि जो ध्यान अत्यन्त शुक्ल की तरह शुक्ल है तथा जिससे दोष हट गया है। अर्थात् जो निर्दोष शुक्ल है तथा अपगण्ड अर्थात् जल के फेन के समान शुक्ल (सफेद) है तथा शंख और चन्द्रमा के समान जो एकान्त शुक्ल है ऐसे शुक्ल : ध्यान के दो भेदों को भगवान् ध्याते थे। अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता । . सिद्धिं गए साइमणंतपत्ते, णाणेण सीलेण य दंसणेण ॥ १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - असेसकम्मं - समस्त कर्मों को, विसोहइत्ता - विशोधन करके, सिद्धिं - सिद्धि को, साइमणंत- सादि अनंत जिसकी आदि है परन्तु अन्त नहीं, पत्ते - प्राप्त हुए, णाणेण - ज्ञान से, दंसणेण - दर्शन से, सीलेण - शील से। भावार्थ - महर्षि भगवान् महावीर स्वामी ज्ञान दर्शन और चारित्र के प्रभाव से ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मों को क्षय करके सर्वोत्तम उस सिद्धि को प्राप्त हुए, जिसकी आदि है परन्तु अन्त नहीं है । विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी शैलेशी अवस्था से उत्पन्न शुक्लध्यान के चौथे भेद को ध्याकर सिद्धि गति को प्राप्त हुए। जिसकी आदि तो है परन्तु अन्त नहीं। इस सिद्धि गति को पांचवीं गति भी कहते हैं। यह लोक के अग्र भाग पर स्थित है इसलिए इसको अग्या भी कहते हैं। यह क्षायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र से प्राप्त होती है। रुक्खेसु णाए जह सामली वा, जस्सिं रइं वेदयंति सुवण्णा। वणेसु वा णंदणमाहु सेढें, णाणेण सीलेण य भूइपण्णे ॥ १८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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