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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
जह वा विससंजुत्तं भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स। जोवि सदोसं साहइ सो तस्स जणो परम बंधू । ऐसे उपकारी का उपकार मानकर अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए॥ ११ ॥ णेया जहा अंधकारंसि राओ, मग्गंण जाणाइ अपस्समाणे। से सूरिअस्स अब्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ।१२।।
कठिन शब्दार्थ - णेया - नेता-मार्गदर्शक, अंधकारंसि - अंधेरी, राओ:- रात्रि में, अपस्समाणे - नहीं देखता हुआ, सूरिअस्स- सूर्य के, अब्भुग्गमेणं - उदित होने पर, वियाणाइ - जानता है, पगासियंसि - प्रकाश में ।
भावार्थ - जैसे मार्गदर्शक पुरुष अँधेरी रात्रि में न देखता हुआ मार्ग को नहीं जान सकता है परन्तु सूर्योदय होने के पश्चात् प्रकाश फैलने पर मार्ग जान लेता है (इसी तरह जिनवचन के ज्ञान से जीव सन्मार्ग को जान लेता है)।
एवं तु सेहे वि अपुटु-धम्मे, धम्मंण जाणाइ अबुज्झमाणे। से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदएं पासइ चक्खुणेव ॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - अपुदुधम्मे - अपुष्ट धर्म वाला, अबुझमाणे - न समझता हुआ, कोविए - कोविद-ज्ञानी, जिणवयणेण - जिन वचनों के द्वारा, सूरोदए - सूर्योदय होने पर, चक्खुणा - चक्षु के द्वारा, इव - तरह।
भावार्थ - सूत्र और अर्थ को न जानने वाला धर्म में अनिपुण शिष्य धर्म के स्वरूप को नहीं जानता है परन्तु वह जिनवचनों का ज्ञाता होकर इस प्रकार धर्म को जान लेता है जैसे सूर्योदय होने पर नेत्र के द्वारा घटपटादि पदार्थों को जान लेता है ।।
विवेचन - जैसे व्यक्ति बादल युक्त अंधेरी रात में जंगल में मार्ग को नहीं जानता है किन्तु सूर्योदय होने से अंधकार हट जाने पर मार्ग को अच्छी तरह जान लेता है, इसी तरह नवदीक्षित शिष्य भी श्रुत और चारित्र धर्म को अच्छी तरह से नहीं जानता है परन्तु वही शिष्यं गुरु महाराज के पास आगम का अध्ययन करने पर जीवादि पदार्थों को इस प्रकार जान लेता है और देख लेता है जैसे सूर्योदय होने पर नेत्रों के द्वारा पदार्थों को देखता है ॥ १२-१३ ।।
उड़े अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य पाणा । सया जए तेसु परिव्वएज्जा, मणप्पओसं अविकंपमाणे ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - उडे- ऊर्ध्व ऊपर, अहे - अधो-नीचे, तिरिय - तिरछी, दिसासु - दिशाओं में,
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