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________________ उपसर्ग नामक तीसरा अध्ययन उत्थानिका - स्वसिद्धान्त के गुणों को और पर सिद्धान्त के दोषों को जान कर संयम का पालन करने वाले मुनि को उपसर्ग हो सकते हैं। उपसर्ग शब्द का अर्थ यह है कि - "उपसृज्यते संबध्यते पीडादिभिः सह जीवस्तेन इति उपसर्गः ।" अर्थ - पीडा आदि से जीव पीड़ित किया जाय उसे उपसर्ग कहते हैं। उपसर्ग के तीन भेद हैं - १. देवकृत २. मनुष्यकृत ३. तिर्यञ्च कृत । उपताप, शरीर पीडा उत्पादन, संयम पालने में आने वाले विघ्न, बाधा उपद्रव आपत्तिं ये उपसर्ग के पर्यायवाची शब्द हैं। उपसर्ग के दो भेद भी किये जा सकते हैं - अनुकूल उपसर्ग और प्रतिकूल उपसर्ग। शरीर आदि को पीड़ित करने वाले उपसर्ग प्रतिकूल उपसर्ग कहलाते हैं। मन और इन्द्रियों को अच्छे लगने वाले कामभोगादि के आमंत्रण रूप उपसर्ग अनुकूल उपसर्ग कहलाते हैं। प्रतिकूल उपसर्गों को जीतना उतना कठिन नहीं है जितना अनुकूल उपसर्गों को जीतना कठिन है। इस अध्ययन में दोनों प्रकार के उपसर्गों का वर्णन किया जायेगा। उन दोनों प्रकार के उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन कर साधक उन पर विजय प्राप्त करे। पहला उद्देशक सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं ण पस्सइ । जुझंतं दधम्माणं, सिसुपालो व महारहं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - सूरं-- शूर, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, जेयं - विजेता पुरुष को, पस्सइ - देखता है, जुझंतं - युद्ध करते हुए, दढधम्माणं - दृढ़धर्म वाले, सिसुपालो - शिशुपाल, महारहंमहारथी । भावार्थ - कायर पुरुष भी तब तक अपने को शूर मानता है, जब तक वह विजेता पुरुष को नहीं देखता है परंतु उसे देखकर वह क्षोभ को प्राप्त होता है जैसे शिशुपाल अपने को शूर मानता हुआ भी युद्ध करते हुए महारथी दृढ़ धर्मवाले श्री कृष्ण को देखकर क्षोभ को प्राप्त हुआ था । - विवेचन - कोई तुच्छ स्वभाव वाला मनुष्य अपने आपको ऐसा मानता है कि - मेरे सरीखा शूरवीर कोई दूसरा नहीं है। परन्तु युद्ध उपस्थित होने पर सामने आते हुए शत्रु पक्ष के वीर पुरुष शस्त्र और अस्त्र की वर्षा करने लगते हैं उस समय वह घबरा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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