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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
यह दृष्टान्त देकर शास्त्रकार फरमाते हैं कि संयम भी एक आध्यात्मिक रणसंग्राम है। इसमें आत्मिक शूरवीर ही टिक सकते हैं कायर नहीं। जैसा कि कहा है -
नानी का घर है नहीं, खराखरी का खेल।
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कायर का कारज नहीं, शूरा हो तो झेल ॥
पयाया सूरा रणसीसे, संगामम्मि उवट्ठिए ।
माया पुतं ण याणा, जेएण परिविच्छए ॥ २ ॥
कठिन शब्दार्थ- पयाया गया हुआ, रणसीसे युद्ध के शीर्ष (अग्र) भाग में, परिविच्छए छेदन भेदन किया हुआ ।
भावार्थ - युद्ध छिड़ने पर वीराभिमानी कायर पुरुष भी युद्ध के आगे जाता है परंतु धीरता को नष्ट करने वाला युद्ध जब आरंभ होता है और घबराहट के कारण जिस युद्ध में माता अपने गोद से गिरते हुए पुत्र को भी नहीं जानती है, तब वह पुरुष विजयी पुरुष के द्वारा छेदन-भेदन किया हुआ दीन हो जाता है ।
विवेचन - इस गाथा में संग्राम की भीषणता बतलाई गई है। एवं सेहे वि अप्पुट्ठे, भिक्खायरिया अकोविए ।
सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव लूहं ण सेव ॥ ३ ॥
कठिन शब्दार्थ - सेहे शैक्ष अभिनव प्रव्रजित शिष्य, अपुट्ठे अस्पृष्ट, भिक्खायरिया भिक्षाचर्या, अकोविए - अकोविद - अनिपुण, लूहं रूक्ष-संयम का सेवए सेवन करता है।
भावार्थ - जैसे कायर पुरुष जब तक शत्रु-वीरों से घायल नहीं किया जाता तभी तक अपने को वीर मानता है इसी तरह भिक्षाचरी में अनिपुण तथा परीषहों के द्वारा स्पर्श नहीं किया हुआ अभिनव प्रव्रजित साधु भी तभी तक अपने को वीर मानता है जब तक वह संयम का सेवन नहीं करता है । विवेचन - केवल वचन से ऐसा कहने वाला पुरुष कि 'संयम पालन करना क्या कठिन है ?' परन्तु संयम में जब परीषह उपसर्ग आकर पीड़ित करते हैं तब वह घबरा जाता है । क्योंकि संयम पालन करना केवल वचनों से नहीं होता किन्तु आत्मा की दृढता से होता है । गाथा में दिये हुए भिक्षाचर्या शब्द का शब्दार्थ गोचरी के अतिरिक्त संयम का भी होता है। यहाँ संयम को 'लूह'- रूक्ष अर्थात् रूखा कहा है । यह रूक्ष इसलिये है कि इसमें कर्म नहीं चिपकते हैं ।
जया हेमंत मासम्मि, सीयं फुसइ सव्वगं ।
तत्थ मंदा विसीयंति, रज्जहीणा व खत्तिया ॥ ४ ॥
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