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________________ अध्ययन १ उद्देशक १ .....................TÜÜÜÜÜÜÜÜ*****************ÜÜÜÜÜÜÜTÜÜÜÜÜÜÜÜÜÜ***.***.000 ३. गर्भ - एक जन्म का आयुष्य पूर्ण करके दूसरी माता के गर्भ में जाना । ४. जन्म - एक गति के जन्म को पूरा करके फिर दूसरे जन्म में जाना । ५. दुःख - कष्ट पीडा । जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो ॥ ६. मार- मृत्यु - एक भव के आयुष्य को पूरा करना । "सात भय संसार मां तिण मां मरण भय मोटो रे । " अन्य मतावलम्बी अज्ञानता के कारण ओघ, संसार, गर्भ जन्म, दुःख और मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं। 1 उपरोक्त गाथाओं में 'संधि' शब्द दिया है। संधि दो प्रकार की होती है १. द्रव्य संधि और २ भावसन्धि | द्रव्य सन्धि दीवार आदि को जोड़ने को द्रव्य संधि कहते हैं । ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों को क्षय करने के अवसर को भाव सन्धि कहते हैं । १. संयोग प्राकृत शब्द कोश के अनुसार सन्धि के यहाँ छह अर्थ मुख्यतया होते हैं । यथा २. जोड़ या मेल ३. उत्तरोत्तर पदार्थ परिज्ञान ४. मत (अभिप्राय) ५. अवसर ६. विवर (छिद्र) । इन अर्थों के अनुसार व्याख्या इस प्रकार समझनी चाहिये १. संयोग - आत्मा के साथ कर्मों का संयोग कैसे और कब हुआ ? १९ २. जोड़ या मेल - आत्मा के साथ कर्मों का मेल (जोड) किस कारण से हुआ ? ३. उत्तरोत्तर पदार्थ विज्ञान आगे से आगे तत्त्वभूत पदार्थों का परिज्ञान कैसे होता है ? ४. मत (अभिप्राय) - कर्मों के साथ आत्मा का सम्बन्ध किस सिद्धान्त के अनुसार होता है । ५. अवसर - कर्मों को तोड़ने का अवसर मनुष्य भव उत्तमकुल आर्यक्षेत्र, लम्बा आयुष्य, परिपूर्ण इन्द्रियाँ आदि की प्राप्ति होना । ६. विवर (छिद्र) Jain Education International - - - ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का विवर (रहस्य) क्या है अर्थात् उनका स्वरूप क्या है और उनका क्षय करने का उपाय क्या है ? उपरोक्त बातों को जाने बिना ही अन्य मतावलम्बी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं। इसलिये वे कर्मों का क्षय करके मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं । वह दुखाई, अणुहोंति पुणो पुणो । संसार चक्कवालंमि, मच्छु वाहि जराकुले ॥ २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - णाणाविहाई - नानाविध- नाना प्रकार के, दुक्खाई - दुःखों को, अणुहोंति - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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