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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००० अनुभव करते हैं, पुणो पुणो - बार बार, संसारचक्कवालंमि - संसार रूपी चक्र में, मच्चु- मृत्यु, वाहि - व्याधि, जराकुले - वृद्धता से पूर्ण ।
भावार्थ - मृत्यु, व्याधि, और वृद्धता से परिपूर्ण इस संसार रूपी चक्र में वे अन्यतीर्थी बार-बार नाना प्रकार के दुःखों को भोगते हैं ।
उच्चावयाणि गच्छंता, गब्भमेस्संति णंतसो । णायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे ॥ त्ति बेमि ॥ २७॥ . . .
कठिन शब्दार्थ - उच्चावयाणि - ऊंच नीच गतियों में, गच्छंता - भ्रमण करते हुए, गब्भं - गर्भवास को एस्संति - प्राप्त करेंगे, णंतसो - अनन्तबार, णायपुत्ते - ज्ञातपुत्र, महावीरें - महावीर स्वामी, जिणोत्तमे - जिनोत्तम, एवं - इस तरह, आह - कहा है ।
भावार्थ - ज्ञातपुत्र जिनोत्तम श्री महावीर स्वामी ने कहा है कि पूर्वोक्त अफलवादी ऊँच नीच गतियों में भ्रमण करते हुए बार बार गर्भवास को प्राप्त करेंगे ।
विवेचन - इस गाथा में भगवान् महावीर को ज्ञातपुत्र कहा है । जिस प्रकार. श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की माता त्रिशला का कुल 'विदेह' था इसलिये भगवान् का नाम भी विदेह पड़ा । इसी प्रकार राजा सिद्धार्थ का वंश 'ज्ञात' (णाय) था । इसलिये भगवान् का नाम 'ज्ञातपुत्र' पड़ा।
उपरोक्त पञ्च भूतवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी आदि मिथ्या-सिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाले हैं अतः वे मतवादी संसार, गर्भ, जन्म, मृत्यु और दुःख को पार नहीं कर सकते हैं । वीतराग सिद्धान्त को मानने वाले ही इनको पार कर सकते हैं । जैसा कि कहा है -
मंत्र तंत्र औषध नहीं, जिणथी पाप पलाय । वीतराग वाणी बिना, और न कोई उपाय ।। संसार, गर्भ, मृत्यु आदि सब का मूल कारण जन्म है ऐसा ज्ञानी फरमाते हैं यथा - जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ किसंति जंतवो ।।।
यद्यपि संसारी प्राणी तो बालक बालिका के जन्म को सुख का कारण मानते हैं परन्तु ज्ञानी फरमाते हैं कि जो जन्मा है वह मृत्यु की सूचना लेकर आया है । यथा -
जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः, मृतस्य जन्म वा न वा । अकर्मा याति निर्वाणं, सकर्मा जायते पुनः ।।
अर्थ - जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य होती है चाहे वह राजा, राणा, तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि भी क्यों न हो । जिसकी मृत्यु हुई है उसका फिर जन्म होता भी है या नहीं भी होता है।
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