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अध्ययन १ उद्देशक १ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० क्योंकि जो आठों कर्मों को काट देता है उसका उसी भव में मोक्ष हो जाता है फिर उसका जन्म नहीं होता है। जब जन्म नहीं होता तो मरण भी नहीं होता। जिसके कर्म बाकी रहते हैं उस जीव का वापिस जन्म होता है। जब जन्म होता है तो रोग, बुढापा एवं मृत्यु भी होती है। निष्कर्ष यह निकला कि सब दुःखों का मूल कारण जन्म ही है। यही सबसे बड़ा रोग है । अत: कहा है -
जन्म मरण के रोग को, जो तूं मेटा चाय।। शरण गहो जिनराज की, इम सम दूजा नाय।। जिनवाणी औषध पीओ, जन्म मरण मिट जाय। फिर अंकुर ऊगे नहीं, जड़ा मूल से जाय॥
चर्पट मञ्जरी ग्रन्थ में भी जन्म मरण के रोग को मिटाने के लिये भगवान् की भक्ति करने की प्रेरणा देते हुए कवि ने कहा हैपुनरपि जननं पुनरपि मरणम् ।
पुनरपि जननी जठरे शयनम् ॥ इह संसारे खलु दुस्तारे
___ कृपया पारे पाहि मुरारे ॥ भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढमते । • प्राप्त सन्निहि ते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृत्र करणे ॥
अर्थात् संसार में जन्म और मरण का चक्र चल रहा है। ऐसा होते हुए भी अज्ञानी प्राणी 'यह किया और यह करूंगा' इस प्रकार संसार में फंसता जा रहा है। ज्ञानी फरमाते हैं कि - हे मूढमति प्राणी ! करना' 'करना' को छोड़कर 'मरना 'मरना' याद रख । अतः संसार के कामों को छोड़ कर भगवान् का भजन कर जिससे जन्म मरण का चक्र घटे।
_माता देवकी के अनेक मनोरथों की पूर्ति रूप गजसुकुमाल मुनि का जन्म हुआ। जब करीब १६ वर्ष की उम्र हुई तब भगवान् अरिष्टनेमि की वाणी सुन कर वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा अंगीकार की उस समय माता देवकी ने उन्हें अन्तिम आशीर्वाद दिया -
म्हनें छोड़ ने चाल्या लालजी बीजी मात मत कीजोजी ॥
गजसुकुमाल जी ने माता के इस आशीर्वाद को उसी दिन सफल कर दिया अर्थात् मुक्ति प्राप्त कर जन्म मरण के चक्कर को सदा सदा के लिये काट दिया।
इसी प्रकार का आशीर्वाद पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव ने अरिष्टनेमि कुमार को दिया था। यथा -
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