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________________ अध्ययन १ उद्देशक १ विवेचन - इस प्रथम अध्ययन का नाम 'समय' है। शब्द कोश में समय शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं यथा-काल (सर्व सूक्ष्म काल), सिद्धान्त, संकेत, आगम, नियम, मत, शास्त्र, शपथ (सौगंध), आचार, आत्मा, स्वीकार (अंगीकार) आज्ञा (निर्देश), शर्त, अवसर, प्रस्ताव, रिवाज, सामायिक, संयम विशेष, सुन्दर परिणाम, पदार्थ, दर्शन। यहां पर 'समय' शब्द का अर्थ सिद्धान्त, आगम, शास्त्र, मत, दर्शन, आचार और नियम आदि लिया गया है। नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामी ने 'समय' शब्द का 'नाम समय', 'स्थापना समय' यावत् 'भाव समय' आदि बारह प्रकार का निक्षेप किया है। उसमें से यहाँ पर सिर्फ 'भाव समय' का ग्रहण किया गया है। इस अध्ययन में स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त इन दोनों का कथन किया गया है अर्थात् पर सिद्धान्त का खण्डन कर के स्व सिद्धान्त (सम्यक् सिद्धान्त) की प्ररूपणा की गई है। इसलिये इस अध्ययन को 'स्व-पर समय वक्तव्यता' भी कहते हैं। जैन सिद्धान्त में ज्ञान और क्रिया दोनों की सम्मिलित प्रवृत्ति से मोक्ष की प्राप्ती बताई गई है। यथा"ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" (प्रमाण मीमांसा) .. अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों के सम्मिलित रूप से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैसा कि ठाणाङ्ग (स्थानाङ्ग) सूत्र के दूसरे ठाणे के प्रथम उद्देशक में कहा है - दोहिं. ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणाइयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं वीइवएजा, तं जहा - विज्जाए चेव, चरणेण चेव । ___अर्थात् दो बातों से युक्त अनगार (साधु-साध्वी) इस अनादि और अनवदन (अनन्त) दीर्घ मार्ग वाले चार गति रूप संसार कान्तार (अटवी-जंगल) को पार कर जाता है। यथा-विद्या (ज्ञान) और चारित्र । ... . प्रश्न - वीर किसे कहते हैं ? उत्तर - 'वि-विशेषण इरयति मोक्षं प्रति गच्छति, गमयति वा प्राणिनः, प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति, वीरयति वा रागादि शत्रून् प्रति पराक्रमयतीति वीरः।' - विशेषत ईरयति क्षिपति तिरस्करोति अशेषाण्यपि कर्माणि इति वीरः। अथवा विशेषत ईरयति शिवपदं प्रति भव्यजन्तून् गमयति इति वीरः। अथवा 'दृ' विदारणे, विदारयति कर्मरिपुसंघट्टम् इति वीरः। यदाह- . . "विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते। तपोवीर्येण युक्रश्च, तस्माद् वीर इति स्मृतः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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