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उपरोक्त मान्यता मिथ्या है क्योंकि किसी एक पदार्थ की भूतकालीन, भविष्यत्कालीन अनन्त पर्यायों को और वर्तमान कालीन पर्यायों को जाने बिना एक पदार्थ का भी सम्पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता है और एक पदार्थ की सम्पूर्ण पर्यायों को जान लेना यही सर्वज्ञता है । जैसा कि आचाराङ्ग सूत्र में कहा है
जे एगं जाणइ से
सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।
स्याद्वादमञ्जरी में भी कहा है कि
अध्ययन १ उद्देशक ४
एको भावः सर्वथा येन दृष्टः । सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ॥
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सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः ।
एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥
अर्थ - जिसने एक पदार्थ को सम्पूर्ण रूप से जान लिया उसने सब पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से जान लिया और जिसने सम्पूर्ण पदार्थों को सर्व रूप से जान लिया उसने एक पदार्थ को भी सम्पूर्ण रूप से जान लिया।
किसी अन्यतीर्थी का मत है कि धीर पुरुष सब देश और सब काल में परिमित पदार्थ को ही जानता और देखता है। जैसा कि कहा है कि ब्रह्मा दिव्य ( देवता सम्बन्धी) एक हजार वर्ष तक सोता उस समय वह कुछ नहीं जानता और देखता है तथा दिव्य एक हजार वर्ष तक जागता है उस समय वह जानता है और देखता है।
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उपरोक्त मान्यता भी मिथ्या है। क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से वे सर्वदा काल जागते ही रहते हैं उन्हें निद्रा नहीं आती। अतः वे सर्वथा और सर्वदा जानते और देखते हैं ।
जे केइ तसा पाणा, चिट्ठति अदु थावरा ।
परियाए अस्थि से अंजू, जेण ते तस्स थावरा ॥ ८ ॥
कठिन शब्दार्थ - अंजू - अवश्य, परियाए - पर्याय, अस्थि होता है, जेण - जिससे । भावार्थ - इस लोक में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं वे अवश्य एक दूसरे पर्याय में जाते हैं. अतएव कभी त्रस स्थावर हो सकते हैं और स्थावर त्रस हो सकते हैं ।
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विवेचन - इस संसार में त्रस और स्थावर प्राणी हैं वे अपने अपने कर्मों का फल भोगने के लिये अवश्य एक दूसरे पर्याय में आते जाते रहते हैं । अर्थात् स प्राणी स्थावर पर्याय में आ जाते हैं और
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