SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ और पौराणिकों की बात विपरीत बुद्धि से उत्पन्न होने के कारण दूसरे अविवेकियों की बात के समान ही मिथ्या है । ४६ 000000 अणं णिइए लोए, सासए ण विणस्स । अंतवं णिइए लोए, इइ धीरोऽतिपासइ ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अणंते - अनन्त, णिइए - नित्य, सासए शाश्वत, विणस्स - विनाश होता है, अंत - अंत वाला, अतिपासइ - देखते हैं । भावार्थ - यह लोक अनन्त, नित्य और शाश्वत है । इसका विनाश नहीं होता है तथा यह लोक अन्तवान् (सीमित) और नित्य है यह व्यास आदि धीर पुरुष देखते हैं । - विवेचन - यद्यपि यह लोक नित्य है, अनन्त है तथापि अन्य मतावलम्बी इन शब्दों का भिन्न अर्थ करते हैं जैसे कि वे नित्य शब्द का अर्थ करते हैं- जो जैसा है वह वैसा ही रहता है। जैसे कि - मनुष्य सदा मनुष्य ही रहता है, पशु सदा पशु ही रहता है। स्त्री मर कर परंभव में स्त्री ही होती है पुरुष मर कर परभव में पुरुष ही रहता है । परन्तु यह उनकी मान्यता मिथ्या है क्योंकि जीव अपने कर्म के अनुसार देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति में जाता है और अपने कर्मानुसार ही पुरुष का स्त्री और स्त्री का पुरुष हो जाता है। अपरिमाणं वियाणाइ, इहमेगेसिमाहियं । सव्वत्थ सपरिमाणं, इइ धीरोऽतिपास ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - अपरिमाणं परिमाण रहित, वियाणाइ जानता है, सव्वत्थ सपरिमाणं परिमाण सहित । भावार्थ - किसी की मान्यता है कि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला पुरुष अवश्य है परन्तु सब पदार्थों का ज्ञाता सर्वज्ञ पुरुष नहीं है । परिमित पदार्थों को जानने वाला ही पुरुष है यह धीर पुरुष देखते हैं । विवेचन - अन्यतीर्थियों की मान्यता है कि - कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। उसके सर्वज्ञ होने से जगत् के जीवों को कोई लाभ भी नहीं है। जैसा कि कहा है - - Jain Education International सर्वं पश्यतु वा मावा, इष्टं अर्थ (तत्त्वं इष्टं ) तु पश्यतु । कीट संख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ अर्थ- सब पदार्थों को देखे अथवा न देखे किन्तु अपनी आत्मा के इष्ट अर्थ को देख लेना चाहिये। क्योंकि सर्वज्ञ होकर सब कीडों की संख्या बतलावे यह ज्ञान हमारे किस काम में आ सकता है ? सर्वत्र, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy