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.. अध्ययन १ उद्देशक ४ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
सपरिग्गहा य सारंभा, इहमेगेसि-माहियं । अपरिग्गहा अणारंभा, भिक्खू ताणं परिव्वए ॥३॥
कठिन शब्दार्थ - सपरिग्गहा - परिग्रह रखने वाले, सारंभा- आरंभ करने वाले, अपरिग्गहा - परिग्रह रहित, अणारंभा - आरंभ रहित, ताणं - शरण, परिव्यए - जावे ।
भावार्थ - कोई अन्यतीर्थी कहते हैं कि परिग्रह रखने वाले और आरम्भ करने वाले जीव, मोक्ष प्राप्त करते हैं परन्तु भावभिक्षु परिग्रह रहित और आरम्भ वर्जित पुरुष के शरण में जावे ।।
विवेचन - अन्यदर्शनी कहते हैं कि - 'परिग्रह रखने वाले और आरंभ करने वाले जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं ।' उनकी यह मान्यता गलत है । ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि - आरंभ और परिग्रह से रहित पुरुष ही मुक्ति प्राप्त करते हैं । यही शरण और त्राणभूत है ।
कडेसु घासमेसेज्जा, विऊ दत्तेसणं चरे । अगिद्धो विप्पमुक्को य, ओमाणं परिवज्जए ॥४॥
कठिन शब्दार्थ - कडेसु - कृत-दूसरे द्वारा बनाए हुए आहार में से, घासं - ग्रास आहार की, एसेना - गवेषणा करे, दत्तेसणं - दिये हुए आहार को लेने की गवेषणा, अगिद्धो - गृद्धि रहित, विप्पमुक्को - विप्रमुक्त-रागद्वेष रहित, ओमाणं - दूसरे का अपमान परिवजए - परिवर्जन करे ।
- भावार्थ - विद्वान् साधु दूसरे द्वारा बनाये हुए आहार की. गवेषणा करे तथा दिए हुए आहार को ही ग्रहण करने की इच्छा करे। आहार में मूर्छा और राग द्वेष न करे तथा दूसरे का अपमान कभी न करे ।
विवेचन - गृहस्थ के द्वारा लगने वाले औद्देशिक आदि १६ दोष तथा ग्रहण करने वाले मुनि की तरफ सें लगने वाले धात्री आदि उत्पादना के १६ दोष तथा देने वाले दाता और ग्रहण करने वाले मुनि दोनों के सम्मिलित रूप से लगने वाले शंकित आदि दस दोष इन ४२ दोषों को टाल कर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे तथा मांडला के अर्थात् आहार करते समय लगने वाले संयोजना, इंगाल, धूम, अकारण, अप्रमाण इन पांच दोषों को टाल कर आहार आदि का उपयोग करे। .लोगवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसिमाहियं । विपरीय पण्णसंभूयं, अण्णउत्तं तयाणुयं ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - लोगवायं - लोकवाद अर्थात् पौराणिकों के सिद्धान्त को, णिसामिज्जा - सुनना चाहिये, विपरीय पण्णसंभूयं - विपरीतप्रज्ञासम्भूत-विपरीत बुद्धि से रचित, अण्णउत्तंअन्यउक्त-अन्य अविवेकियों ने जो कहा है, तयाणुयं- उसका अनुगामी ।
भावार्थ - कोई कहते हैं कि पाषण्डी अथवा पौराणिकों की बात सुननी चाहिए परन्तु पौराणिक
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