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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
. चौथा उद्देशक एए जिया भो ! ण सरणं, बाला पंडियमाणिणो । हिच्चा णं पुव्वसंजोगं, सिया किच्चोवएसगा ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - भो - हे शिष्य, जिया - जीते जा चुके, पंडियमाणिणो - अपने को पंडित मानने वाले, हिच्चा - छोड़ कर पुष्वसंजोगं - पूर्व संयोगों को, किच्चोवएसगा - गृहस्थ के कृत्य (कार्य) का उपदेश देने वाले ।
भावार्थ - ये अन्यदर्शनी काम क्रोधादि से पराजित हैं अतः हे शिष्य ! ये लोग संसार से रक्षा . करने में समर्थ नहीं है । ये लोग अज्ञानी हैं तथापि अपने को पण्डित मानते हैं । ये लोग अपने बन्धु बान्धवों से सम्बन्ध छोड़कर भी परिग्रह में आसक्त रहते हैं तथा गृहस्थ के सावय कर्त्तव्य का उपदेश देते हैं ।
विवेचन - उपरोक्त अन्य मतावलम्बी घर-बार छोड़कर मोक्ष के लिये उद्यत होते हैं परन्तु पीछे से परिग्रह और आरम्भ में आसक्त हो जाते हैं अतः ये गृहस्थ के तुल्य ही हैं। इनके मनुस्मृति ग्रन्थ में बतलाया है ।
पञ्चशूना गृहस्थस्य, चुल्ली पेषण्युपस्करः। कण्डनी चोदकुम्भश्च, वध्यन्ते यास्तु वाहयन् ॥
अर्थ - गृहस्थ के घर में पांच शूना (बूचड़खाना) अर्थात् छह काय जीवों के हिंसा के साधन बतलाये गये हैं- १. चुल्ली (चूल्हा) २. चक्की, ३. झाडू ४. ऊखली और ५. पलीण्डा (जल रखने का स्थान)। इन पांच के द्वारा छह काय जीवों की हिंसा होती है। इसलिये इनको 'पञ्चशूना' कहते हैं। अपने आपको निःसंग और प्रवर्जित कहने वाले ये अन्यतीर्थी सावध कार्यों से युक्त हैं तथा गृहस्थों को भी इन सावध कार्यों का उपदेश देते हैं। अतः ये मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
तं च भिक्खू परिण्णाय, विजं तेसु ण मुच्छए । अणुक्कस्से अप्पलीणे, मझेण मुणि जावए ॥२॥
कठिन शब्दार्थ - विजं - विज्ञ-विद्वान्, मुच्छए - मूर्छा करे, अणुक्कसे - किसी प्रकार का मद न करना, अप्पलीणे - किसी के साथ संबंध न रखना, मझेण - मध्यस्थ वृत्ति से, जावए - व्यवहार करे ।। .
भावार्थ - विद्वान् साधु अन्यतीर्थियों को जानकर उनमें मूर्छा न करे अर्थात् इनके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखें तथा किसी तरह का मद न करता हुआ संसर्ग रहित मध्यस्थ वृत्ति से रहे ।
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