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अध्ययन १ उद्देशक ३ 0000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००००
२. महिमा - अपने शरीर को बड़ा से बड़ा बना लेना (मेरु समान)। ३. लघिमा - अपने शरीर को रुई के समान हलका बना लेना। ४. गरिमा - अपने शरीर को भारी से भारी बना लेना। यथा लोह, वज्र । ५. प्राप्ति-जमीन पर बैठे हुए मेरुपर्वत पर हाथ फिरा लेना। ६. प्राकाम्य - सब इच्छाओं का सफल होना। ७. ईशित्वं - शरीर और मन पर पूरा अधिकार हो जाना तथा ऐश्वर्य शाली होना।
८. वशित्व - जिनको चाहे उन सभी प्राणियों को अपने वश में कर लेना। कहीं कहीं पर दो - सिद्धियां और दी है यथा
अप्रतिघातित्व किसी भी वस्तु में नहीं रोका जाना।
यत्र कामाव सायित्व - जिस वस्तु को भोगने की इच्छा हो उसे इच्छा पूरी होने तक नष्ट नहीं होने देना।
असंवुडा अणाइयं, भमिहिंति पुणो पुणो । कप्पकालमुवति, ठाणा आसुरकिव्विसिया ।। १६ ॥ त्ति बेमि ।।
कठिन शब्दार्थ - असंवुडा - असंवृत-इन्द्रिय विजय से रहित, अणाइयं - अनादि-आदि रहित संसार में, भमिहिंति - भ्रमण करेंगे, कप्पकालं - चिरकाल तक ठाणा - स्थान, आसुर किदिवसियाअसुर किल्विषिक में, उवजति - उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ - इन्द्रिय विजय से रहित वे अन्यदर्शनी बार बार संसार में भ्रमण करते रहेंगे वे बाल तप के प्रभाव से असुर स्थानों में बहुत काल तक किल्विषी देवता होते हैं ।
विवेचन - अम्य मतावलम्बी लोग मोक्ष की प्राप्ति के लिये उद्यत होकर भी अपनी इन्द्रियों को और मन को वश में नहीं रखते हैं इससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती बल्कि अपने बुरे आचरण के कारण कर्म-पाश से बद्ध होकर बार-बार नरक आदि यातना स्थानों में उत्पन्न होते रहते हैं। कदाचित् बाल-तप के कारण कभी स्वर्ग की प्राप्ति हो भी जाती है तो ऊंची जाति के देव न होकर हल्की जाति के देव किल्विषी आदि होते हैं ।
॥ इति तीसरा उद्देशक ॥
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