________________
३१०
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग पुरुष को किसी भी विषय में शंका और संशय नहीं होता है ऐसा निर्मल ज्ञान वीतराग को ही होता है । सांख्य मीमांसक आदि में वीतरागता न होने के कारण ऐसा निर्मल ज्ञान नहीं होता है ॥ २ ॥
तहिं तहिं सुयक्खायं, से य सच्चे सुआहिए । सया सच्चेण संपण्णे, मेत्तिं भूएहिं कप्पए ॥३॥
कठिन शब्दार्थ - सुयक्खायं - सम्यक् प्रकार से उपदेश किया है, सुआहिए - सुभाषित, सच्चेण - सत्य से, संपण्णे - संपन्न, मेत्तिं - मैत्री, भूएहिं - जीवों के साथ, कप्पए - करे ।
भावार्थ - श्री तीर्थंकर देव ने भिन्न-भिन्न स्थलों में जो जीवादि तत्त्वों का अच्छी तरह उपदेश किया है वही सत्य है और वही सुभाषित है इसलिये मनुष्य को सदा सत्य से युक्त होकर जीवों में . मैत्रीभाव रखना चाहिये ।
विवेचन - सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग भगवन्तों का वचन सदा सत्य होता हैं वे तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए जगत् के समस्त प्राणियों पर रक्षा रूप दया करते हैं ॥ ३ ॥
भूएहिं ण विरुण्झेजा, एस धम्मे वुसीमओ। . सिमं जगं परिण्णाय, अस्सिं जीविय-भावणा । ४।
कठिन शब्दार्थ - विरुण्झेजा - विरोध (वैर) करे, वुसीमओ - तीर्थंकर का अथवा संयमी (साधु) का, वुसिमं - वुसिमान्-साधु, परिण्णाय - जानकर, जीविय भावणा - जीवित भावना ।।
भावार्थ - प्राणियों के साथ विरोध न करना साधु का धर्म है। इसलिये जगत् के स्वरूप को जानकर साधु धर्म की भावना करे।
विवेचन - मुनि हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है इसलिए त्रस या स्थावर किसी भी प्राणि की हिंसा न करें। मुनि पंचमहाव्रत धारी होता है। प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएं होती हैं, इस प्रकार पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं हैं। मुनि उनका प्रतिदिन चिंतन मनन करता हुआ पूर्ण रूप से पालन करे॥ ४ ॥
भावणा-जोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । .. णावा व तीर-संपण्णा, सव्व-दुक्खा तिउट्टइ ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - भावणा-जोग-सुद्धप्पा - भावना योग शुद्धात्मा-भावना रूपी योग से शुद्ध आत्मा वाला, णावा - नाव, तीरसंपण्णा - तीर को प्राप्त, सव्वदुक्खा - सब दुःखों से, तिउट्टाछूट जाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org