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आदानीय नामक पन्द्रहवाँ अध्ययन जमतीतं पडुप्पण्णं आगमिस्सं च णायओ ।। सव्वं मण्णइ तं ताई, दसणावरणंतए ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - जं - जो, अतीतं - अतीत-भूत में हो चुके, पडुप्पण्णं - प्रत्युत्पन्न-वर्तमान में हैं, आगमिस्सं - भविष्य में होंगे, णायओ - नायक-नेता, मण्णइ - जानता है, ताई - जीव रक्षक, दंसणावरणंतए - दर्शनावरणीय कर्म का अंत करने वाला ।
भावार्थ - जो पदार्थ उत्पन्न हो चुके हैं और जो वर्तमानकाल में विद्यमान हैं तथा जो भविष्यकाल में होंगे उन सब पदार्थों को, दर्शनावरणीय कर्म को अन्त करने वाला जीवरक्षक नेता पुरुष जानता है । . . .
विवेचन - चौदहवें अध्ययन में यह बतलाया गया है कि साधु को बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के ग्रन्थों को त्याग करना चाहिए। ग्रन्थ (परिग्रह) का त्याग करने से चारित्र शुद्ध होता . है यह बात इस अगले अध्ययन में बताई जा रही है।
। जो पुरुष भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्यकाल में होने वाले उन सब के यथार्थ रूप को जानता व देखता है वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी नेता (नायक) होता है. अर्थात् वह स्वयं सुगति को प्राप्त करता है और दूसरों को भी संसार सागर से पार उतार कर सुगति में स्थापित करता है। ऐसा पुरुष सर्वजीव रक्षक होता है। . .
गाथा में 'दंसणावरणंतए' शब्द दिया है अर्थात् दर्शनावरणीय का अन्त करने वाला। यह केवल उपलक्षण मात्र हैं इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घाती कर्मों का ग्रहण कर लेना चाहिए॥ १ ॥
अंतए.वितिगिच्छाए, से जाणइ अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया, ण से होइ तहिं तहिं ॥२॥
कठिन शब्दार्थ - अंतए - अंत करने वाला, वितिगिच्छाए- विचिकित्सा-संशय का, अणेलिसं - अनुपम तत्त्व को, अक्खाया- आख्यान करने वाला, तहिं - वहाँ । .
- भावार्थ - संशय को दूर करनेवाला पुरुष सबसे बढ कर पदार्थ को जानता है । जो पुरुष सबसे बढ कर वस्तु तत्त्व का निरूपण करनेवाला है वह बौद्धादि दर्शनों में नहीं है ।
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